Saturday 2 September 2017

पीलिया = कारण,लक्षण एवं उपचार/निदान

गर्मी तथा बरसात के दिनो में जो रोग सबसे अधिक होते है, उनमे से पीलिया प्रमुख है पीलिया ऐसा रोग है जो एक विशेष प्रकार के वायरस और किसी कारणवश शरीर में पित्त की मात्रा बढ़ जाने से होता है इसमें रोगी को पीला पेशाब आता है उसके नाखून, त्वचा एवं आखों सा सफ़ेद भाग पीला पड़ जाता है बेहद कमजोरी कब्जियत, जी मिचलाना, सिरदर्द, भूख न लगना आदि परेशानिया भी रहने लगती है 
   

प्रमुख कारण :-  विषाणु जनित यकृतशोथ पीलिया या Viral Hepatitis यह एक प्रकार के वायरस से होने वाला रोग है जो इस रोग से पीडित रोगी के मल के संपर्क में आये हुए दूषित जल, कच्ची सब्जियों आदि से फैलता है कई लोग इससे ग्रस्त नहीं होते है उनके मल से इसके वायरस दूसरो तक पहुच जाते है पेट से यह लीवर में और वहां से सारे शरीर में फ़ैल जाता है रोगी को लगाईं गई सुई का अन्य स्वस्थ व्यक्ति के शरीर में बिना उबले प्रयोग करने से व रोगी का खून अन्य स्वस्थ व्यक्ति में चड़ने से भी यह रोग फैलता है । इसके अतिरिक्त शरीर में अम्लता की वृद्धि, बहुत दिनों तक मलेरिया रहना, पित्त नली में पथरी अटकना, अधिक मेंहनत, जादा शराब पीना, अधिक नमक और तीखे पदार्थो का सेवन, दिन में ज्यादा सोना, खून में रक्तकणों की कमी होना आदि कारणों से भी इस रोग की उत्पत्ति होती है !  

लक्षण :-  वायरस के शरीर में प्रवेश करने के लगभग एक मास बाद इस रोग के लक्षण नजर आने लगते है लक्षणों के प्रारम्भ होने से एक सप्ताह पहले ही रोगी के मल में वायरस निकलने लगते है आमतौर पर रोग की शुरुआत में रोगी को शक ही नहीं हो पाता है कि वह कामला का शिकार हो गया है यूं तो इसके वायरस सारे शरीर में फ़ैल जाते है पर लीवर पर इसका विशेष दुष्प्रभाव पड़ता है लिवर कोशिकाओ के रोगग्रस्त हो जाते व आमाशय में सुजन आ जाने से रोगी को भूख लगना बंद हो जाती है उसका जी मिचलाता है | और कभी कभी उसे उलटी भी हो जाती है कब्जियत रहती है भोजन की इच्छा बिलकुल न होना तथा भोजन के नाम से ही अरुचि होना इस रोग का प्रधान लक्षण है ,, लिवर में शोथ होने से आमाशय में या फिर दाहिनी पसलियों के नीचे भारीपन या हल्का सा दर्द का लक्षण भी महसूस होता है शरीर में विष संचार के कारण सिरदर्द  रहता है शरीर थका थका व असमर्थ लगने लगने लगता है ! शाम के समय तबियत गिरी गिरी रहती है शरीर में विष संचार के कारण 100 से 102 डिग्री तक बुखार भी तीन चार दिन रहता है पित्त के रक्त में जाने से मूत्र गहरे रंग, सरसों के तेल के सामान आता है तथा रोग के बढ़ने पर आंत में पित्त के कम आने से मल का रंग फीका हो जाता है मल मात्रा में अधिक व दुर्गंधित होता है | इस रोग में रक्त जमने का समय बढ़ जाता है जिससे रक्तपित्त का उपद्रव हो सकता है | त्वचा एवं आँखों का रंग पीला हो जाता है । पीलिया के रोगियों के जांच करने पर उनका लिवर कुछ कुछ बड़ा हुआ तथा पसलियों से एक तो अंगुल या अधिक नीचे स्पर्श होता है परन्तु कठोर नहीं होता , दबाने पर दर्द होता है मूत्र परिक्षण करने पर वह सरसों के तेल के समान पीला होता है क्यूंकि उसमें बिलीरूबीन होता है ,, यानि कि विस्तार से कहें तो रक्त में पित्तरंजक (Billirubin)  नामक एक रंग होता है, जिसके आधिक्य से त्वचा और श्लेष्मिक कला में पीला रंग आ जाता है।
इस दशा को ही कामला या पीलिया(Jaundice) कहते हैं- सामान्यत: रक्तरस में पित्तरंजक का स्तर 1.0 प्रतिशत या इससे कम होता है, किंतु जब इसकी मात्रा 2.5 प्रतिशत से ऊपर हो जाती है तब कामला/पीलिया के लक्षण प्रकट होते हैं। कामला/ पीलिया स्वयं कोई रोगविशेष नहीं है, बल्कि कई रोगों में पाया जानेवाला एक लक्षण है। यह लक्षण नन्हें-नन्हें बच्चों से लेकर 80 साल तक के बूढ़ों में उत्पन्न हो सकता है। यदि पित्तरंजक की विभिन्न उपापचयिक प्रक्रियाओं में से किसी में भी कोई दोष उत्पन्न हो जाता है तो पित्तरंजक की अधिकता हो जाती है, जो कामला के कारण होती है। रक्त में लाल कणों का अधिक नष्ट होना तथा उसके परिणामस्वरूप अप्रत्यक्ष पित्तरंजक का अधिक बनना बच्चों में कामला, नवजात शिशु में रक्त-कोशिका-नाश तथा अन्य जन्मजात, अथवा अर्जित, रक्त-कोशिका-नाश-जनित रक्ताल्पता इत्यादि रोगों का कारण होता है। जब यकृत की कोशिकाएँ अस्वस्थ होती हैं तब भी कामला हो सकता है, क्योंकि वे अपना पित्तरंजक मिश्रण का स्वाभाविक कार्य नहीं कर पातीं और यह विकृति संक्रामक यकृतप्रदाह, रक्तरसीय यकृतप्रदाह और यकृत का पथरा जाना (कड़ा हो जाना, Cirrhosis) इत्यादि प्रसिद्ध रोगों का कारण होती है। अंतत: यदि पित्तमार्ग में अवरोध होता है तो पित्तप्रणाली में अधिक प्रत्यक्ष पित्तरंजक का संग्रह होता है और यह प्रत्यक्ष पित्तरंजक पुन: रक्त में शोषित होकर कामला की उत्पत्ति करता है। अग्नाशय, सिर, पित्तमार्ग तथा पित्तप्रणाली के कैंसरों में, पित्ताश्मरी की उपस्थिति में, जन्मजात पैत्तिक संकोच और पित्तमार्ग के विकृत संकोच इत्यादि शल्य रोगों में मार्गाविरोध यकृत बाहर होता है। यकृत के आंतरिक रोगों में यकृत के भीतर की वाहिनियों में संकोच होता है, अत: प्रत्यक्ष पित्तरंजक के अतिरिक्त रक्त में प्रत्यक्ष पित्तरंजक का आधिक्य हो जाता है। 
वास्तविक रोग का निदान कर सकने के लिए पित्तरंजक का उपापचय (Metabolism) समझना आवश्यक है। रक्तसंचरण में रक्त के लाल कण नष्ट होते रहते हैं और इस प्रकार मुक्त हुआ हीमोग्लोबिन रेटिकुलो-एंडोथीलियल (Reticulo-endothelial) प्रणाली में विभिन्न मिश्रित प्रक्रियाओं के उपरांत पित्तरंजक के रूप में परिणत हो जाता है, जो विस्तृत रूप से शरीर में फैल जाता है, किंतु इसका अधिक परिमाण प्लीहा में इकट्ठा होता है। यह पित्तरंजक एक प्रोटीन के साथ मिश्रित होकर रक्तरस में संचरित होता रहता है। इसको अप्रत्यक्ष पित्तरंजक कहते हैं। यकृत के सामान्यत: स्वस्थ अणु इस अप्रत्यक्ष पित्तरंजक को ग्रहण कर लेते हैं और उसमें ग्लूकोरॉनिक अम्ल मिला देते हैं यकृत की कोशिकाओं में से गुजरता हुआ पित्तमार्ग द्वारा प्रत्यक्ष पित्तरंजक के रूप में छोटी आँतों की ओर जाता है। आँतों में यह पित्तरंजक यूरोबिलिनोजन में परिवर्तित होता है जिसका कुछ अंश शोषित होकर रक्तरस के साथ जाता है और कुछ भाग, जो विष्ठा को अपना भूरा रंग प्रदान करता है, विष्ठा के साथ शरीर से निकल जाता है।
प्रत्येक दशा में रोगी की आँख (सफेदवाला भाग Sclera) की त्वचा पीली हो जाती है, साथ ही साथ रोगविशेष काभी लक्षण मिलता है। वैसे सामान्यत: रोगी की तिल्ली बढ़ जाती है, पाखाना भूरा या मिट्टी के रंग का, ज्यादा तथा चिकना होता है। भूख कम लगती है। मुँह में धातु का स्वाद बना रहता है। नाड़ी के गति कम हो जाती है। विटामिन ‘के’ का शोषण ठीक से न हो पाने के कारण तथा रक्तसंचार को अवरुद्ध (haemorrhage) होने लगता है। पित्तमार्ग में काफी समय तक अवरोध रहने से यकृत की कोशिकाएँ नष्ट होने लगती हैं। उस समय रोगी शिथिल, अर्धविक्षिप्त और कभी-कभी पूर्ण विक्षिप्त हो जाता है तथा मर भी जाता है। कामला के उपचार के पूर्व रोग के कारण का पता लगाया जाता है। इसके लिए रक्त की जाँच, पाखाने की जाँच तथा यकृत-की कार्यशक्ति की जाँच करते हैं। इससे यह पता लगता है कि यह रक्त में लाल कणों के अधिक नष्ट होने से है या यकृत की कोशिकाएँ अस्वस्थ हैं अथवा पित्तमार्ग में अवरोध होने से है।
पीलिया की चिकित्सा में इसे उत्पन्न करने वाले कारणों का निर्मूलन किया जाता है जिसके लिए रोगी को अस्पताल में भर्ती कराना आवश्यक हो जाता है। कुछ मिर्च, मसाला, तेल, घी, प्रोटीन पूर्णरूपेण बंद कर देते हैं, कुछ लोगों के अनुसार किसी भी खाद्यसामग्री को पूर्णरूपेण न बंद कर, रोगी के ऊपर ही छोड़ दिया जाता है कि वह जो पसंद करे, खा सकता है। औषधि साधारणत: टेट्रासाइक्लीन तथा नियोमाइसिन दी जाती है। कभी-कभी कार्टिकोसिटरायड (Corticosteriod) का भी प्रयोग किया जाता है जो यकृत में फ़ाइब्रोसिस और अवरोध उत्पन्न नहीं होने देता। । कामला के पित्तरंजक को रक्त से निकालने के लिए काइनेटोमिन (Kinetomin) का प्रयोग किया जाता है। कामला के उपचार में लापरवाही करने से जब रोग पुराना हो जाता है तब एक से एक बढ़कर नई परेशानियाँ उत्पन्न होती जाती हैं और रोगी विभिन्न स्थितियों से गुजरता हुआ कालकवलित हो जाता है।
उपचार:- रोगी को शीघ्र ही डॉक्‍टर के पास जाकर परामर्श लेना चाहिये। बिस्‍तर पर आराम करना चाहिये घूमना, फिरना नहीं चाहिये। लगातार जांच कराते रहना चाहिए। डॉक्‍टर की सलाह से भोजन में प्रोटिन और कार्बोज वाले प्रदार्थो का सेवन करना चाहिये। नीबू, संतरे तथा अन्‍य फलों का रस भी इस रोग में गुणकारी होता है। वसा युक्‍त गरिष्‍ठ भोजन का सेवन इसमें हानिकारक है। चावल, दलिया, खिचडी, थूल्ली, उबले आलू, शकरकंदी, चीनी, ग्‍लूकोज, गुड, चीकू, पपीता, छाछ, मूली आदि कार्बोहाडेट वाले प्रदार्थ हैं 
इनका रोग की रोकथाम एवं बचाव
पीलिया रोग के प्रकोप से बचने के लिये कुछ साधारण बातों का ध्‍यान रखना जरूरी हैः- खाना बनाने, परोसने, खाने से पहले व बाद में और शौच जाने के बाद में हाथ साबुन से अच्‍छी तरह धोना चाहिए। भोजन जालीदार अलमारी या ढक्‍कन से ढक कर रखना चाहिये, ताकि मक्खियों व धूल से बचाया जा सकें। ताजा व शुद्व गर्म भोजन करें दूध व पानी उबाल कर काम में लें। पीने के लिये पानी नल, हैण्‍डपम्‍प या आदर्श कुओं को ही काम में लें तथा मल, मूत्र, कूडा करकट सही स्‍थान पर गढ्ढा खोदकर दबाना या जला देना चाहिये। गंदे, सडे, गले व कटे हुये फल नहीं खायें धूल पडी या मक्खियां बैठी मिठाईयों का सेवन नहीं करें। स्‍वच्‍छ शौचालय का प्रयोग करें यदि शौचालय में शौच नहीं जाकर बाहर ही जाना पडे तो आवासीय बस्‍ती से दूर ही जायें तथा शौच के बाद मिट्टी डाल दें। रोगी बच्‍चों को डॉक्‍टर जब तक यह न बता दें कि ये रोग मुक्‍त हो चूके है स्‍कूल या बाहरी नहीं जाने दे। इन्‍जेक्‍शन लगाते समय सिरेन्‍ज व सूई को 20 मिनट तक उबाल कर ही काम में लें अन्‍यथा ये रोग फैलाने में सहायक हो सकती है। रक्‍त देने वाले व्‍यक्तियों की पूरी तरह जांच करने से बी प्रकार के पीलिया रोग के रोगवाहक का पता लग सकता है
पीलिया के लक्षण ( Symptoms of Jaundice ) :
·         पीलापन ( Pallor ) : पीलिया का सबसे पहला और मुख्य लक्षण शरीर के अनेक हिस्सों का पीला पड़ना है. जिसमे आँखें, नाख़ून त्वचा और मूत्र भी शामिल है. इसका मुख्य कारण ये होता है कि इस रोग में लाल रक्त कोशिकायें / RBC ( Red Blood Cell ) बाईल या बिलीरुबिन पिगमेंट में बदल जाती है. जिससे मूत्र का रंग गहरा शुरू होना आरंभ हो जाता है. अगर इसपर समय पर ध्यान नही दिया जाता तो इससे मूत्र में इन्फेक्शन भी हो सकता है जिससे किडनी भी खराब हो सकती है. किडनी के साथ साथ पीलिया का रोग लीवर को भी अपना शिकार बनता है.

·         पेट दर्द ( Stomach Pain ) : क्योकि पीलिया में किडनी, लीवर और पाचन तंत्र प्रभावित होते है तो इससे पेट में दर्द और अन्य विकार उत्पन्न होने आरंभ हो जाते है. इस स्थिति में लोगो को ज्यादातर पेट के दाहिने हिस्से में दर्द होना आरंभ होता है और ये धीरे धीरे बढ़ने लगता है.

·         तेज बुखार ( High Fever ) : पीलिया एक वायरस का रोग है जिससे शरीर में विष का संचार होता है. ये विष शरीर का तापमान 100 से 103 डिग्री तक पहुंचा देता है. जिससे रोगी को लगातार बुखार रहता है. इससे उनकी आँखों पर गहरा प्रभाव पड़ता है क्योकि उनकी आँखे बुरी तरह से जलने लगती है.

·         उल्टियाँ ( Vomiting ) : पीलिया के रोगी का खाने से मन उठ जाता है किन्तु फिर भी उसको उल्टी और मतली आती रहती है. जिससे उसके शरीर में कमजोरी आ जाती है और उसे चक्कर आने लगते है. अगर इन लक्षणों पर शीघ्र ही ध्यान नही दिया जाता तो ये बड़े रोग को बुलावा दे देती है.। अनजान व्‍यक्ति से यौन सम्‍पर्क से भी बी प्रकार का पीलिया हो सकता है।सेवन करना चाहिये


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