Friday 1 September 2017

पित्ताशय पथरी के कारण ओर दुष्परिणाम

पित्त पथरी, पित्ताशय के अन्दर पित्त अवयवों के संघनन से बना हुआ रवाकृत जमाव होता है। इन पथरियों का निर्माण पित्ताशय के अन्दर होता है लेकिन ये केंद्र से दूर रहते हुए पित्त मार्ग के अन्य भागों में भी पहुंच सकती है जैसे पुटीय नलिका, सामान्य पित्त नलिका, अग्न्याशयीय नलिका या एम्प्युला ऑफ वेटर.
पित्ताशय में पथरी की उपस्थिति तीव्र कोलेसिसटाइटिस का कारण बन सकती है जो कि पित्ताशय में पित्त के अवरोधन के कारण होने वाली सूजन की अवस्था है और यह प्रायः आंत संबंधी सूक्ष्मजीवों द्वारा होने वाले द्वीतियक संक्रमण का कारण भी बनता है, मुख्यतः एस्चीरिचिया कोली और बैक्टिरॉयड्स वर्गों में. पित्त मार्ग के अन्य हिस्सों में पथरी की उपस्थिति के कारण पित्त नलिकाओं में अवरोध पैदा हो सकता है जोकि एसेन्डिंग कोलैनजाइटिस या पैन्क्रियेटाइटिस जैसी गंभीर अवस्थाओं तक पहुंच सकता है। इन दोनों में से कोई भी अवस्था प्राणों के लिए घातक हो सकती है और इसलिए इन्हें चिकित्सीय आपातस्थिति के रूप में देखा जाता है।
पित्त की पथरियां विभिन्न आकार को होती हैं, ये रेत के एक कण से लेकर गोल्फ की गेंद जितनी बड़ी हो सकती है। पित्ताशय में एक बड़ी पथरी या कई छोटी पथरियां मौजूद हो सकती हैं। स्युडोलिथ्स, जिन्हें कभी-कभी स्लज भी कहा जाता है, यह गाढ़ा स्राव होता है, जो पित्ताशय के अन्दर अकेले या पूर्ण रूप से विकसित पथरी के साथ जुड़ा हुआ पाया जा सकता है। इसकी नैदानिक प्रस्तुती कोलेलिथियेसिस के सामान ही होती है। पिताशय की पथरी का संघटन आयु, भोजन और नस्ल द्वारा प्रभावित होता है। इनके संघटन के आधार पर, पित्ताशय की पथरियों को निम्न प्रकारों में विभक्त किया जा सकता है:
कोलेस्ट्रॉल पथरियां----
कोलेस्ट्रॉल पथरियां विभिन्न रंगों की हो सकती है, यह हलके पीले रंग से लेकर गहरे हरे या भूरे रंग की होती है और इसका आकार अंडे के समान होता है तथा यह 2 से 3 सेमी लम्बी हो सकती है, जिसमे प्रायः मध्य में एक छोटा सा गहरे रंग का धब्बा होता है। इस प्रकार से वर्गीकृत किये जाने हेतु इनके संघटन में अवश्य ही भार के अनुसार कम से कम 80% कोलेस्ट्रौल (या जापानी वर्गीकरण प्रणाली के अनुसार 70%) होना चाहिए
वर्णक पथरियां-----
वर्णक पथरियां छोटी, गहरे रंग की पथरी होती है जो पित्ताशय में पाए जाने वाले बिलिरूबिन और कैल्सियम के लवणों से बनी होती है। इनमे कोलेस्ट्रौल की मात्रा 20 प्रतिशत से भी कम होती है
मिश्रित पथरियां----
मिश्रित पथरियों में आदर्श रूप से 20 से 80 प्रतिशत कोलेस्ट्रौल होता है। अन्य सामान्य संघटकों में कैल्सियम कार्बोनेट, पॉमिटेट फॉस्फेट, बिलिरुबिन और अन्य पित्त वर्णक हैं। इनके कैल्सियम घटक के कारण ये प्रायः रेडियोग्राफी द्वारा दृश्य होती हैं।
पित्ताशय की पथरी कई वर्षों तक लक्षणरहित भी रह सकती है। पित्ताशय की ऐसी पथरी को "साइलेंट स्टोन" कहते हैं और इनके लिए उपचार की आवश्यकता नही होती. आमतौर पर लक्षण तब दिखने शुरू होते हैं, जब पथरी एक निश्चित आकार प्राप्त कर लेती है (>8 मिमि) पित्ताशय की पथरी का एक प्रमुख लक्षण "पथरी का दौरा" होता है जिसमे व्यक्ति को पेट के ऊपरी दाहिने हिस्से में अत्यधिक दर्द होता है, जिसके बाद प्रायः मिचली और उल्टी आती है, जो 30 मिनट से लेकर कई घंटों तक निरंतर बढ़ती ही जाती है। किसी मरीज़ को ऐसा ही दर्द कंधे की हड्डियों के बीच या दाहिने कंधे के नीचे भी हो सकता है। यह लक्षण "गुर्दे की पथरी के दौरे" से मिलते-जुलते हो सकते हैं। अक्सर ये दौरे विशेषतः वसायुक्त भोजन करने के बाद आते हैं और लगभग हमेशा ही यह दौरे रात के समय आते हैं। अन्य लक्षणों में, पेट का फूलना, वसायुक्त भोजन के पाचन में समस्या, डकार आना, गैस बनना और अपच इत्यादि होते हैं।
ऐसे मामलों में शारीरिक परीक्षण किये जाने की स्थिति में सभी मर्फी लक्षण (रोग निदान की एक प्रणाली) सकारात्मक पाए जाते हैं।

कारण----

पित्ताशय की पथरी का खतरा पैदा करने वाले लक्षणों में अधिक वज़न होना, 40 के आसपास या उससे अधिक उम्र का होना और समय से पूर्व रजोनिवृत्ति का होना आदि हैं! यह अवस्था अन्य नस्लों की अपेक्षा सफ़ेद नस्ल के लोगों में अधिक प्रबल होती है। मेलाटोनिन की कमी भी पित्ताशय की पथरी का एक प्रमुख कारण होती है, क्योंकि मेलाटोनिन कोलेस्ट्रौल के स्राव को रोकता है और साथ ही कोलेस्ट्रौल के पित्त में परिवर्तित होने की क्रिया को बढ़ाता भी है और यह एक एंटीऑक्सीडेंट भी है जो पित्ताशय के जारणकारी दबाव को कम करने में समर्थ होता है। शोधकर्ताओं का यह मानना है कि पित्ताशय की पथरी कई कारणों के संयोजन से होती है, जिसमे वंशानुगत शारीरिक गुणधर्म, शरीर का वज़न, पित्ताशय की गतिशीलता और संभवतः भोजन भी शामिल है। हालांकि इन जोखिम संबंधी कारणों की अनुपस्थिति भी पित्ताशय की पथरी की सम्भावना को समाप्त नहीं कर सकती.
पित्ताशय की पथरी और भोजन के मध्य हालांकि कोई सीधा सम्बन्ध साबित नहीं किया जा सका है; हालांकि कम रेशेयुक्त, उच्च कोलेस्ट्रौल युक्त भोजन तथा उच्च स्टार्च युक्त भोजन खाने से भी पित्ताशय में पथरी के बनने की सम्भावना बढ़ जाती है। पोषण संबंधी अन्य कारण जिनसे पित्ताशय की पथरी होने की सम्भावना बढ़ सकती है उनमे तीव्रता के साथ वज़न घटना, कब्ज़, पर्याप्त से कम भोजन करना, अधिक मछली नहीं खाना तथा निम्नांकित पोषक तत्वों, फोलेट, मैगनीसियम, कैल्सियम और विटामिन सी की कम मात्र ग्रहण करना शामिल है। दूसरी ओर शराब (वाइन) और समूचे अन्न से बनी ब्रेड आदि के सेवन से पित्ताशय की पथरी होने की सम्भावना कम हो जाती है। विकासशील विश्व में सामान्यतया वर्णक प्रकार की पित्ताशयीय पथरी ही अधिक देखने को मिलती है। वर्णक प्रकार की पथरी होने का जोखिम बढ़ाने वाले कारणों में हेमोलिटिक एनेमियास (जैसे सिकल सेल विकार और आनुवंशिक स्फेरोकाइटोसिस), सिरोसिस और पित्तीय मार्ग संक्रमण आदि आते हैं। एरिथ्रोपोएटिक प्रोटोपौर्फिरिया (ईपीपी (EPP)) से ग्रसित व्यक्तियों में पित्ताशय की पथरी होने का खतरा अधिक होता है।

रोग-निदान --- 

कभी-कभी कोलेस्ट्रौल पित्त पथरी मौखिक रूप से अर्सोडिऑक्सीकोलिक एसिड के द्वारा भी गलायी जा सकती है लेकिन इसके लिए यह आवश्यक होता है कि मरीज़ कम से कम 2 वर्ष तक इसकी दवा लेता रहे.! हालांकि, एक बार दवा बंद करने पर फिर से पथरी हो सकती है। पथरी के कारण सामान्य पित्त नलिका में होने वाले अवरोध को एंडोस्कोपी रेट्रोग्रेड स्फिन्क्ट्रोटॉमी (ईआरएस (ERS)) के द्वारा हटाया भी जा सकता है जिसके उपरांत एंडोस्कोपिक रेट्रोग्रेड कोलएंजियोपैन्क्रियेटोग्राफी (ईआरसीपी (ERCP)) की जाती है। लिथोट्रिप्सी (एक्स्ट्राकॉर्पोरियल शॉक वेव थेरेपी) नामक प्रक्रिया द्वारा पित्त पथरी को तोड़ा जा सकता है। जिसमे, अल्ट्रासोनिक शॉक तरंगों को पथरी के एक बिंदु पर एकत्रित करके उसे छोटे टुकड़ों में तोड़ दिया जाता है। इससे ये सरलता से मल के द्वारा निकल जाती हैं। हालांकि, उपचार की यह पद्धति तभी उपयुक्त समझी जाती है जब पथरियों की संख्या बहुत कम हो.
शल्य चिकित्सा ---
कोलेसिस्टेकटॉमी (पित्ताशय को निकालना) के द्वारा कोलेलिथियेसिस के पुनः होने की सम्भावना 99 प्रतिशत तक कम हो जाती है। केवल लक्षणात्मक मरीजों में ही शल्य चिकित्सा की जानी चाहिए. अधिकांश लोगों में पित्ताशय की अनुपस्थिति से कोई नकारात्मक परिणाम नहीं होता. हालांकि, अधिकांश लोगों में - 5 से 40 प्रतिशत लोगों में - पोस्टकोलेसिस्टेकटॉमी सिंड्रोम नामक अवस्था विकसित हो जाती है जोकि गैस्ट्रोइंटेसटाइनल समस्या और पेट के ऊपरी दाहिने हिस्से में निरंतर दर्द पैदा कर सकती है। इसके अतिरिक्त, अधिकांश मरीजों, लगभग 20 प्रतिशत में दीर्घकालिक डायरिया हो जाता है।
कोलेसिस्टेकटॉमी के लिए दो विकल्प होते हैं:-----
  • ओपन कोलेसिस्टेकटॉमी: यह प्रक्रिया पेट (लापरोटॉमी) में निचली दाहिनी पसली के नीचे एक चीरे द्वारा की जाती है। आदर्श रूप से स्वास्थलाभ के लिए 3-5 दिन तक अस्पताल में रहना पड़ता है, अस्पताल से छूटने के एक सप्ताह बाद साधारण भोजन लिया जा सकता है और इसके कई सप्ताह बाद सामान्य दिनचर्या शुरू की जा सकती है।
  • लैप्रोस्कोपिक कोलेसिस्टेकटॉमी: इस प्रक्रिया का प्रयोग 1980 के दशक में शुरू हुआ था! इसमें कैमरे और उपकरण के लिए तीन या चार छोटे छेद किये जाते हैं। ऑपरेशन के बाद की जाने वाली देखभाल में आदर्श रूप से उसी दिन छुट्टी दे दी जाती है या एक रात अस्पताल में रहना पड़ता है, इसके बाद कुछ दिनों तक घर पर आराम करने की और दर्द होने पर दवा लेने की सलाह दी जाती है। जो मरीज़ लैप्रोस्कोपिक कोलेसिस्टेकटॉमी करवाते हैं, वे अस्पताल से छुट्टी मिलने के एक सप्ताह बाद साधारण भोजन और मामूली गतिविधियां शुरू कर सकते हैं, इस दौरान उनका ऊर्जा स्तर कुछ कम रहेगा और उन्हें एक या दो महीने तक हल्का दर्द हो सकता है। अध्ययनों से यह प्रदर्शित हुआ है कि यह प्रक्रिया भी ओपन कोलेसिस्टेकटॉमी, जोकि अधिक कठिन है, के समान ही प्रभावी है किन्तु इसके लिए एक आवश्यक परिस्थिति यह है कि प्रक्रिया शुरू करने के पूर्व पथरियों को कोलैंजियोग्राम द्वारा सटीक ढंग से ढूंढ लिया जाये जिससे कि उन सभी को हटाया जा सके !

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