Wednesday 19 June 2019

रजस्वला स्त्री अपवित्र क्यों होती है

रजस्वला स्त्री अपवित्र क्यों होती है?

इस विषय पर भारतीय महर्षियों ने ही जाना और तदनुकूल विविध नियमों की रचना की। विदेशों में भी इस संबंध में नए सिरे से अन्वेषण हुआ है और हो भी रहे है।

रजोदर्शन क्या है?
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इस विषय का विवेचन करते हुए भगवान धन्वन्तरि ने लिखा है ।

*मासेनोपचितं काले धमनीभ्यां तदार्तवम्।*

*ईषत्कृष्ण विदग्धं च वायुर्योनिमुखं नयेत।।*

( सुश्रुत शारीरस्थान अ.3 वाक्य

अर्थात् - स्त्री के शरीर में वह आर्तव (एक प्रकार का रूधिर) एक मास पर्यन्त इकट्ठा होता रहता है। उसका रंग काला पड़ जाता है। तब वह धमनियों द्वारा स्त्री की योनि के मुख पर आकर बाहर निकलना प्रारम्भ होता है इसी को रजोदर्शन कहते हैं।

रजोदर्शन की उपरोक्त व्याख्या से हमें ज्ञात होता है कि स्त्री के शरीर से निकलने वाला रक्त काला तथा विचित्र गन्धयुक्त होता है। अणुवीक्षणयन्त्र द्वारा देखने पर उसमें कई प्रकार के विषैले कीटाणु पाये गए हैं। दुर्गंधादि दोषयुक्त होने के कारण उसकी अपवित्रता तो प्रत्यक्ष सिद्ध है ही। इसलिए उस अवस्था में जब स्त्री के शरीर की धमनियां इस अपवित्र रक्त को बहाकर साफ करने के काम पर लगी हुई है और उन्हीं नालियों से गुजरकर शरीर के रोमों से निकलने वाली उष्मा तथा प्रस्वेद के साथ रज कीटाणु भी बाहर आ रहे होते हैं, तब यदि स्त्री के द्वारा छुए जलादि में वे संक्रमित हो जाएं तथा मनुष्य के शरीर पर अपना दुष्प्रभाव डाल दें, तो इसमें क्या आश्चर्य?

अस्पतालों में हम प्रतिदिन देखते हैं कि डाक्टर ड्रेसिंग का कार्य करने से पहले और बाद अपने हाथों तथा नश्तर आदि को - हालांकि वे देखने में साफ सुथरे होते हैं - साबुन तथा गर्म पानी से अच्छी तरह साफ करते हैं। हमने कभी सोचा है? ऐसा क्यों करते हैं? एक मूर्ख की दृष्टि में यह सब, समय साबुन और पानी के दुरूपयोग के अतिरिक्त कुछ भी नहीं है, किन्तु डाक्टर जानता है कि यदि वह ऐसा नहीं करे तो वह कितने व्यक्तियों की हत्या का कारण बन जाये। इसी सिद्धांत को यहाँ लिजिए और विचार करें कि उस दुर्गंध तथा विषाक्त किटाणुओं से युक्त रक्त के प्रवहरण काल में स्त्री द्वारा छुई हुई कोई वस्तु क्यों न हानिकारक होगी?

" भारतीय मेडिकल एसोसिएशन " ने नवम्बर १९४९ के अंक में डा.रेड्डी तथा डॉ.गुप्ता ने लिखा है कि - पाश्चात्य डॉक्टरों ने भी रजस्वला के स्राव में विषैले तत्वों का अनुसंधान किया है। १९२० में डोक्टर सेरिक ने अनुभव किया कि कुछ फूल रजस्वला के हाथ में देते ही कुछ समय में मुरझा जाते हैं, १९२३ में डाक्टर मिकवर्ग और पाइके ने यह खोज निकाला कि - रजस्वला स्त्री का प्रभाव पशुओं पर भी पड़ता है। उन्होंने देखा कि उसके हाथों में दिए हुए मेंढक के हृदय की गति मन्द पाई गई है। १९३० में डोक्टर लेनजो भी इसी परिणाम पर पहुंचे और उन्होंने अनुभव किया कि कुछ काल तक मेंढक को रजस्वला के हाथ पर बैठा रखने से मेंढक की पाचन शक्ति में विकार आ गया। डॉक्टर पालेण्ड तथा डील का मत है कि यदि खमीर, रजस्वला स्त्री के हाथों से तैयार कराया जायेगा तो कभी ठीक नहीं उतरता। यह सब परिक्षण किए गए प्रयोग है।

आप घर पर भी कुछ प्रयोग कर सकते हैं - जैसे तुलसी या किसी भी अन्य पौधे को रजस्वला के पास चार दिनों के लिए रख दिजीये वह उसी समय से मुरझाना प्रारंभ कर देंगे और एक मास के भीतर सूख जाएंगा।

रजोदर्शन एक प्रकार से स्त्रियों के लिए प्रकृति प्रदत्त विरेचन है। ऐसे समय उसे पूर्ण विश्राम करते हुए इस कार्य को पूरा होने देना चाहिए। यदि ऐसा न होगा तो दुष्परिणाम भुगतने पडेंगे।

अतः अनिवार्य है की रजस्वला स्त्री को पुर्ण सम्मान से आराम कराना चाहिए। उस चार दिनों तक वह दिन में शयन न करें, रोवे नहीं, अधिक बोले नहीं, भयंकर शब्द सुने नहीं, उग्र वायु का सेवन तथा परिश्रम न करें क्यों - कि हमारे और आपके भविष्य के लिए यह जरूरी है क्योंकि रजस्वला धर्म संतानोत्पति का प्रथम चरण है।

इस विषय पर लिंगपुराण के पूर्वभाग अध्याय ८९ श्लोक ९९ से ११९ में बहुत ही विशद वर्णन किया गया है। उसमें रजस्वला के स्त्री के कृत्य और इच्छित संतानोत्पति के लिए इस कारण को उत्तरदायी बताया गया है इससे शरीर शुद्धि होती है।

लिंग पुराण में एक स्थान पर लक्ष्मी जी और सरस्वती जी के द्वारा शिवलिंग की पूजा का वर्णन है। इससे स्पष्ट होता है कि किसी भी मंदिर में चाहे वह शिव का हो या किसी और देवता का उसमें महिलाओं को पूजा करने से कोई भी रोकना नहीं चाहिए। किन्तु वर्तमान समय की महिलाए रजस्वला समय में भी घर और बाहर कार्यरत रहती है। यही हमारे समाज की दुर्गति का कारण है।

*यदि हम बात करें कि मंदिर में क्यों प्रवेश नहीं करना चाहिए ?*

इसका बहुत बड़ा कारण है कि मंदिर की औरा शक्ति बेहद सघन होती है, हम जो भी पूजा पाठ घर पर करते है, उसकी सात्विक ऊर्जा मंदिर से बेहद कम होती है। जब भी शरीर से स्राव (विरेचन) होता है, उस व्यक्ति की सात्विक ऊर्जा घट जाती है। यह विरेचन चाहे मल के द्वारा हो, मूत्रके द्वारा हो, पसीने के द्वारा हो, या मासिक स्राव द्वारा। जैसे ही यह वेस्टेज शरीर से बाहर निकलता है, हमारा शरीर पुनः ऊर्जा से भर जाता है। लेकिन मल, मूत्र, रोकने वाले से पूँछिये वह कितना बेचैन होता है, जब वह शरीर से नहीं निकलता है।
हमारा शरीर सात चक्रों के कारण चुम्बकीय प्रभाव में रहता है, परन्तु इस चुम्बकीय ऊर्जा का स्तर हर व्यक्ति में रज, सत, तम अनुसार कम ज्यादा होता है। मनीषियों, क्रांतिकारियों की सात्विक ऊर्जा सबसे अधिक होती है। इस उर्जा का संबंध सात्विकता से भी है। चाहे वह भोजन के रूप में हो या मंत्र रूप में या प्रकृति के सानिध्य रूप में हो।  जब भी मंदिर के भीतर बहने वाली चुम्बकीय तरंगों को काटा जाता है तो उसका प्रभाव काटने वाली वस्तु पर भी होता है। इसलिए मंदिरों में एक नियम बनाया गया कि स्त्री मासिक के दौरान अपनी तामसिक या राजसिक तरंगों से मंदिर की औरा प्रभावित ना करे, बल्कि उन दिनों विश्राम करे, विरेचक पदार्थ को निकलने के बाद ही मंदिर में प्रवेश करे। जिस प्रकार शौच में बैठा हुआ व्यक्ति भोजन नहीं करता है, उसी तरह स्राव के दिनों में भी कोई भी वस्तु प्रभु को अर्पण नहीं करनी चाहिए।।

धर्मस्य मूलम् ज्ञानम्
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