Saturday 2 September 2017

टांगो में सूजन और दर्द

टांगों में सूजन और दर्द, हो सकते हैं इस खतरनाक बीमारी के संकेत
डीवीटी यानी डीप वेन थ्रॉम्बोसिस एक खतरनाक बीमारी है।
इसमें टांगों में ब्लड क्लॉट हो सकता है।
उपचार ना होने पर यह बीमारी घातक भी साबित हो सकती है।
डीवीटी यानी डीप वेन थ्रॉम्बोसिस। यह ब्लड क्लॉट होता है, जो शरीर की नसों की गहराई में बन जाता है। ब्लड क्लॉट तब होता है जब खून गाढ़ा हो जाता है। ज़्यादातर ब्लड क्लॉट्स टांग के निचले हिस्से या जांघ पर होते हैं। शरीर की नसों में मौजूद ब्लड क्लॉट्स जब ब्लडस्ट्रीम में फैलते हैं, तो इनके फटने का भी डर होता है और अगर ऐसा हो जाए, तो इस फटे हुए क्लॉट को एम्बोलस कहते हैं। यह फेफड़ों की आर्टरीज़ तक पहुंचकर खून का प्रवाह रोक सकता है।

इस स्थिति को पल्मनेरी एम्बोलिज़म या पीई कहते हैं। यह बेहद ही खतरनाक होती है। यह फेफड़ों और अन्य अंगों को नुकसान पहुंचा सकती है और मृत्यु का कारण भी बन सकती है। टांग के निचले हिस्से या शरीर के अन्य अंगों के मुकाबले, जांघों में ब्लड क्लॉट्स के फटने का डर ज़्यादा होता है। ब्लड क्लॉट्स स्किन के पास मौजूद नसों में ज़्यादा होते हैं, लेकिन ये वाले ब्लड क्लॉट्स फटते नहीं हैं और इनसे पीई होने का खतरा भी नहीं होता।
शरीर की नसों में ब्लड क्लॉट्स या डीवीटी होने के कारण क्या हैं?

शरीर में ब्लड क्लॉट्स तभी होते हैं, जब नसों की अंदरूनी परत डैमेज हो जाती है। फिज़िकल, कैमिकल या बायोलॉजिकल फैक्टर्स के चलते नसों में गंभीर इंजरी हो सकती है, सूजन आ सकती है या इम्यूनिटी कम हो सकती है। सिर्फ यही नहीं, सर्जरी के कारण भी नसें प्रभावित हो सकती हैं। ऐसे में ब्लड क्लॉट्स होने के चांस बढ़ जाते हैं। सर्जरी के बाद खून का प्रवाह कम हो जाता है, क्योंकि मरीज़ कम चलता-फिरता है। अगर आप लंबे समय से बिस्तर पर हैं, बीमार हैं या यात्रा कर रहे हैं, तब भी ब्लड फ्लो कम हो जाता है। ऐसी स्थिति में खून गाढ़ा हो जाता है। जीन्स या फैमिली हिस्ट्री के कारण भी कई बार ब्लड क्लॉटिंग का रिस्क बढ़ जाता है। और-तो-और, हार्मोन थेरेपी या गर्भनिरोधक गोलियों के सेवन से भी क्लॉटिंग का रिस्क ज़्यादा हो जाता है।  

किन लोगों को डीवीटी का रिस्क होता है?

1- जिन लोगों की डीवीटी की हिस्ट्री रही हो।
2- जो लोग उस कंडीशन में हों, जिसमें ब्लड क्लॉट होने की संभावना ज़्यादा होती है।
3- प्रेग्नेंसी और जन्म देने के बाद के पहले 6 हफ्ते।
4- जो लोग कैंसर का ट्रीटमेंट ले रहे हों।
5- 60 साल से ऊपर के लोग
6- ओबेसिटी
7- स्मोकिंग

डीवीटी के लक्षण?

1- टांगों में सूजन या टांगों की नसों में सूजन
2- खड़े होने या चलने पर टांगों में दर्द या वीकनेस
3- टांग के उस हिस्से का गर्म हो जाना जिसमें सूजन या दर्द हो
4- टांग के प्रभावित हिस्से का लाल या कोई और रंग में बदल जाना
5- पल्मनेरी एम्बॉलिज़म

पीई के लक्षण?

1- सांस लेने में दिक्कत
2- गहरी सांस लेने से दर्द होना
3- खांसी करते वक्त खून निकलना
4- तेज़ी से सांस का चलना और दिल की धड़कनें भी तेज़ हो जाना

डीवीटी का ट्रीटमेंट?

डॉक्टर्स दवाओं और थेरेपीज़ के ज़रिए डीवीटी का इलाज करते हैं। इस उपचार में डॉक्टर का लक्ष्य होता है-

1- ब्लड क्लॉट को बड़ा होने से रोकना
2- ब्लड क्लॉट को फटने से रोकना, ताकि वो फेफड़ों तक ना पहुंच पाए
3- दूसरा ब्लड क्लॉट होने का चांस कम करना

इसके अलावा डॉक्टर्स खून को पतला करने की भी दवाई देते हैं। इसे रेगुलर लेनी होती है। इसका कोर्स लगभग 6 महीने का होता है। इस दवाई को लेने से खून पतला हो जाता है और ब्लड क्लॉट बड़ा नहीं होता। जो ब्लड क्लॉट बन चुका है, यह दवाई उसे ब्रेक नहीं कर सकती। ब्लड क्लॉट्स बॉडी में समय के साथ अब्ज़ॉर्ब  होते हैं। ब्लड थिनर्स को पिल की फॉर्म में ले सकते हैं, इंजेक्शन या फिर नस में एक ट्यूब डालकर भी लिया जा सकता है। लेकिन, ब्लड थिनर्स का साइड इफेक्ट है ब्लीडिंग। ब्लीडिंग तब होती है, जब दवाईयों के कारण खून ज़्यादा पतला हो जाता है। यह घातक भी हो सकता है। कई बार ब्लीडिंग अंदरूनी होती है। इसीलिए, डॉक्टर्स मरीज़ों का बार-बार ब्लड टेस्ट करवाते रहते हैं। इन टेस्ट्स में पता चल जाता है कि खून के जमने के कितने चांस हैं।

एलर्जी: कारण और दूर करने के कारगर उपाय

एलर्जी बेहद कॉमन बीमारी है। किसी को खाने की चीज से, किसी को किसी खास महक से तो किसी को डॉग या कैट से एलर्जी हो सकती है। दोस्तों आज हम सभी किसी न किसी बीमारी से ग्रसित है इसका मुख्य कारण वातावरण का बदलाव और टेक्नोलॉजी का बढ़ना|आज हम देख रहे है कि हर कोई मोबाइल और टीवी से लगा हुआ है और अपना पूरा समय मोबाइल में ख़तम कर रहा है मै बताऊ आज छोटे छोटे बच्चे भी इन्टरनेट और कंप्यूटर में ही बिजी है|जिससे वो बहुत परेसान होते जा रहे है चाहे आँख ख़राब होना या तनाव में रहने जैसे समस्या से ग्रसित है|आज वातावरण बहुत दूषित हो गया है और ऐसे में हमारा सरीर बिभिन्न रोगों से ग्रसित होते चले जा रहे है और एलर्जी से भी परेसान है|आज हम देख रहे है बहुत से लोगो को नाक से जुडी बीमारी जैसे नाक की एलर्जी से परेसान रहते है| 
आज मै आपको इस आर्टिकल के माध्यम से बताने जा रहा हू कि नाक की एलर्जी का घरेलू उपाय क्या है और इसको कैसे ठीक किया जा सकता है साथ ही घरेलू उपाय क्या है|वैसे एलर्जी कई तरह की होती है लेकिन मुख्य रूप से नाक और आँख की एलर्जी अधिक देखने को मिलती है|आपको बताये जब हमारा इम्यून सिस्टम यानी रोग प्रतिरोधक तंत्र वातावरण में मौजूद हानिकारक पदार्थो के संपर्क में आ जाता है तो इससे एलर्जी की समस्या हो जाती है|नाक की एलर्जी का मुख्य कारण धूल मिट्टी और दूषित कड के कारण होता है और ऐसा हो जाने पर नाक में सुजन आ जाती है और बहुत दिक्कत होती है|आइये जानते है कि नाक की एलर्जी का घरेलू उपाय क्या है और इससे कैसे निजाद मिलेगा आइये जानते है|

नाक की एलर्जी के प्रकार – दोस्तों एलर्जी के प्रकार की बात करे तो ये मुख्य रूप से दो प्रकार का होता है पहला मौसमी एलर्जी जो साल के किसी खास समय में होती है और दूसरी बारहमासी जो साल में कभी भी हो सकती है ऐसी एलर्जी अधिक देखने को मिलती है इसके लक्षण की बात करे तो इन दोनों के लक्षण एक जैसे है|

एलर्जी के लक्षण – दोस्तों आपको बताये एलर्जी एक बहुत ही घटक होता है इसका लक्षण आपको बताये ऐसा हो जाने से सर्दी से नाक बार बार बहने लगती है ये भी एलर्जी के लक्षण होते है और नाक में सुजन भी हो जाता है|तेज बुखार और सर्दी खाशी भी एलर्जी के लक्षण होते है|और भी बहुत से लक्षण है आइये जानते है|नाक की एलर्जी के लक्षण बताये इसके होने पर नाक न बंद होना और नाक से पानी आने जैसी परेसानी हो जाती है और नाक में सूजन भी एलर्जी के लक्षण है|नाक से अधिक छींके आना भी एलर्जी के ही लक्षण होते है|

एलर्जी के कारण –दोस्तों एलर्जी कई तरह की होती है और इसके बहुत से कारण हो सकते है वैसे तो इसके मुख्य कारण निम्नलिखित है |

  • वातावरण में पराग कड़ का अधिक होना और वातावरण के दूषित होने की वजह से भी एलर्जी हो जाती है|
  • प्रदुषण भी मुख्य कारण है एलर्जी का, वायु प्रदुषण की वजह से भी एलर्जी हो जाती है|
  • अधिक देर तक धूल मिटटी में रहना यानि धूल मिट्टी के कड़ से भी एलर्जी हो जाता है|
  • मैंने आपको बताया मौसम के बदलने से भी एलर्जी हो जाती है|
  • एलर्जी आपको आनुवंशिक रूप से परिवार के वंश से भी हो सकती है|
  • नाक की एलर्जी के मुख्य कारण सिगरेट यानी धूम्रपान भी होता है|

नाक की एलर्जी का घरेलू उपाय –

  1. नाक की एलर्जी सबसे अच्छा उपाय आपको बताये अंजीर और छुहारे को रात में दूध के साथ भिगो दे|अब सुबह उठकर आप इसका सेवन करे बहुत लाभ होगा|इससे तनाव से भी मुक्ति मिल जाती है|
  2. सबसे अच्छा तरीका बताये की जिसको ये हो उसके पास नहीं बैठना उठाना चाहिए क्युकी ये संक्रामक बीमारी है इसीलिए इससे बचना बहुत जरुरी होता है|
  3. अगर रोज आप फल का जूस पियेगे तो इससे बहुत जल्द छुटकारा मिल सकता है और फल में चुकंदर, गाजर और खीरे का सेवन जरुर करना चाहिए|
  4. तुलसी के पत्ते का सेवन करने से सभी प्रकार की एलर्जी दूर हो जाती है और अगर तुलसी के पत्ते की चाय बना कर सेवन किया जाये तो बहुत लाभ होगा|
  5. अदरक, मिश्री, लौंग और काली मिर्च, तुलसी को मिलाकर काढ़ा बनाया जाये तो बहुत लाभ होगा और इसके सेवन से सर्दी जुकाम और खासी से भी राहत मिल जाती है|
  6. अरंडी के तेल का इस्तेमाल भी एलर्जी में लाभ पहुचाता है|अरंडी के तेल में हरी सब्जी और फल के जूस को मिलाकर सेवन करने से बहुत फायदा होता है और मै बताऊ इससे आपको सर्दी जुकाम में भी राहत मिल सकता है|
  7. इतना ही नहीं निम्बू का सेवन भी हमारे लिए बहुत लाभकारी होता है|अगर किसी को एलर्जी की समस्या हो तो आपको बताये सुबह-सुबह गुनगुने पानी में निम्बू का रश मिलाकर सेवन करने से बहुत राहत मिलती है और अगर निम्बू के रश में शहद मिलाकर सेवन करे तो एलर्जी से छुटकारा पाया जा सकता है|
  8. जो लोग नाक के एलर्जी से परेसान है उनके लिए बताये की आप सुबह खली पेट आंवले का रश, गिलोय का रश और शहद मिलाकर सेवन करने से बहुत जल्द इससे छुटकारा मिल सकता है|
  9. आप सभी को मै बताऊ अगर आप रोज सुबह उठकर नंगे पैर हरी घास में ओश में चलने से बहुत रहत मिलता है और हो सकता है इससे छुटकारा भी मिल जायेगा|
  10. प्राणायाम करने से हर तरह की एलर्जी दूर हो जाती है|
  11. कपालभाती करने से भी एलर्जी दूर ही रहती है और मै बताऊ इसे नियमित रूप से करने से छुटकारा भी मिल सकता है|
दोस्तों शरीर में कोई भी बीमारी हो जैसे नाक से जुडी अगर कोई बीमारी है उसके लिए आप अगर योग करेगे तो बहुत जल्द राहत मिल जायेगा और अगर कपालभाती करेगे तो मै उम्मीद के साथ बताऊ आपको इससे छुटकारा मिल जाता है|अब मै समझ सकता हू कि आप आप सभी को मेरा ये पोस्ट अच्छा लगा होगा और अगर फॉलो करेगे तो मेरे द्वारा बताये गए उपायों से आपको राहत मिल जायेगा|

कब्ज..... आज की सबसे बड़ी समस्या

कब्ज पाचन तंत्र की उस स्थिति को कहते हैं जिसमें कोई व्यक्ति (या जानवर) का मल बहुत कड़ा हो जाता है तथा मलत्याग में कठिनाई होती है। कब्ज अमाशय की स्वाभाविक परिवर्तन की वह अवस्था है, जिसमें मल निष्कासन की मात्रा कम हो जाती है, मल कड़ा हो जाता है, उसकी आवृति घट जाती है या मल निष्कासन के समय अत्यधिक बल का प्रयोग करना पड़ता है। सामान्य आवृति और अमाशय की गति व्यक्ति विशेष पर निर्भर करती है। (एक सप्ताह में 3 से 12 बार मल निष्कासन की प्रक्रिया सामान्य मानी जाती है। कब्ज का इलाज करने के लिए कई नुस्खे व उपाय यहां जोड़ें गए हैं|
पेट में शुष्क मल का जमा होना ही कब्ज है। यदि कब्ज का शीघ्र ही उपचार नहीं किया जाये तो शरीर में अनेक विकार उत्पन्न हो जाते हैं। कब्जियत का मतलब ही प्रतिदिन पेट साफ न होने से है। एक स्वस्थ व्यक्ति को दिन में दो बार यानी सुबह और शाम को तो मल त्याग के लिये जाना ही चाहिये। दो बार नहीं तो कम से कम एक बार तो जाना आवश्यक है। नित्य कम से कम सुबह मल त्याग न कर पाना अस्वस्थता की निशानी है ! 
कब्ज होने के प्रमुख कारण -- 
  • कम रेशायुक्त भोजन का सेवन करना ; भोजन में फायबर (Fibers) का अभाव।
  • अल्पभोजन ग्रहण करना।
  • शरीर में पानी का कम होना
  • कम चलना या काम करना ; किसी तरह की शारीरिक मेहनत न करना; आलस्य करना; शारीरिक काम के बजाय दिमागी काम ज्यादा करना।
  • कुछ खास दवाओं का सेवन करना
  • बड़ी आंत में घाव या चोट के कारण (यानि बड़ी आंत में कैंसर)
  • थायरॉयड हार्मोन का कम बनना
  • कैल्सियम और पोटैशियम की कम मात्रा
  • मधुमेह के रोगियों में पाचन संबंधी समस्या
  • कंपवाद (पार्किंसन बीमारी)
  • चाय, कॉफी बहुत ज्यादा पीना। धूम्रपान करना व शराब पीना।
  • गरिष्ठ पदार्थों का अर्थात् देर से पचने वाले खाद्य पदार्थों का सेवन ज्यादा करना।
  • आँत, लिवर और तिल्ली की बीमारी।
  • दु:ख, चिन्ता, डर आदि का होना।
  • सही समय पर भोजन न करना।
  • बदहजमी और मंदाग्नि (पाचक अग्नि का धीमा पड़ना)।
  • भोजन खूब चबा-चबाकर न करना अर्थात् जबरदस्ती भोजन ठूँसना। जल्दबाजी में भोजन करना।
  • बगैर भूख के भोजन करना।
  • ज्यादा उपवास करना।
  • भोजन करते वक्त ध्यान भोजन को चबाने पर न होकर कहीं और होना।
  • कुछ विशिष्ट प्रयोग खाने में ऐसी चीजें ले, जि‍नसे पेट स्‍वयं ही साफ हो जाये 
  • नमक – छोटी हरड और काल नमक समान मात्रा में मि‍लाकर पीस लें। नि‍त्‍य रात को इसकी दो चाय की चम्‍मच गर्म पानी से लेने से दस्‍त साफ आता हैं।
  • ईसबगोल – दो चाय चम्‍मच ईसबगोल 6 घण्‍टे पानी में भि‍गोकर इतनी ही मि‍श्री मि‍लाकर जल से लेने से दस्‍त साफ आता हैं। केवल मि‍श्री और ईसबगोल मि‍ला कर बि‍ना भि‍गोये भी ले सकते हैं।
  • चना – कब्‍ज वालों के लि‍ए चना उपकारी है। इसे भि‍गो कर खाना श्रेष्‍ठ है। यदि‍ भीगा हुआ चना न पचे तो चने उबालकर नमक अदरक मि‍लाकर खाना चाहि‍ए। चेने के आटे की रोटी खाने से कब्‍ज दूर होती है। यह पौष्‍ि‍टक भी है। केवल चने के आटे की रोटी अच्‍छी नहीं लगे तो गेहूं और चने मि‍लाकर रोटी बनाकर खाना भी लाभदायक हैं। एक या दो मुटठी चने रात को भि‍गो दें। प्रात: जीरा और सौंठ पीसकर चनों पर डालकर खायें। घण्‍टे भर बाद चने भि‍गोये गये पानी को भी पी लें। इससे कब्‍ज दूर होगी।
  • बेल – पका हुआ बेल का गूदा पानी में मसल कर मि‍लाकर शर्बत बनाकर पीना कब्‍ज के लि‍ए बहुत लाभदायक हैं। यह आँतों का सारा मल बाहर नि‍काल देता है।
  • नीबू – नीम्‍बू का रस गर्म पानी के साथ रात्रि‍ में लेने से दस्‍त खुलकर आता हैं। नीम्‍बू का रस और शक्‍कर प्रत्‍येक 12 ग्राम एक गि‍लास पानी में मि‍लाकर रात को पीने से कुछ ही दि‍नों में पुरानी से पुरानी कब्‍ज दूर हो जाती है।
  • नारंगी – सुबह नाश्‍ते में नारंगी का रस कई दि‍न तक पीते रहने से मल प्राकृति‍क रूप से आने लगता है। यह पाचन शक्‍ति‍ बढ़ाती हैं।
  • मेथी – के पत्‍तों की सब्‍जी खाने से कब्‍ज दूर हो जाती है।
  • गेहूँ के पौधों (गेहूँ के जवारे) का रस लेने से कब्‍ज नहीं रहती है।
  • धनिया – सोते समय आधा चम्‍मच पि‍सी हुई सौंफ की फंकी गर्म पानी से लेने से कब्‍ज दूर होती है।
  • दालचीनी – सोंठ, इलायची जरा सी मि‍ला कर खाते रहने से लाभ होता है।
  • टमाटर कब्‍जी दूर करने के लि‍ए अचूक दवा का काम करता है। अमाश्‍य आँतों में जमा मल पदार्थ नि‍कालने में और अंगों को चेतनता प्रदान करने में बडी मदद करता है। शरीर के अन्‍दरूनी अवयवों को स्‍फूर्ति‍ देता है। 
  • अन्य कुछ सलाह ----
  • १) इसबगोल की की भूसी कब्ज में परम हितकारी है। दूध या पानी के साथ २-३ चम्मच इसबगोल की भूसी रात को सोते वक्त लेना फ़ायदे मंद है। दस्त खुलासा होने लगता है।यह एक कुदरती रेशा है और आंतों की सक्रियता बढाता है।
    २) नींबू कब्ज में गुण्कारी है। मामुली गरम जल में एक नींबू निचोडकर दिन में २-३बार पियें। जरूर लाभ होगा।
    नीम्‍बू का रस गर्म पानी के साथ रात्रि‍ में लेने से दस्‍त खुलकर आता हैं। नीम्‍बू का रस और शक्‍कर प्रत्‍येक 12 ग्राम एक गि‍लास पानी में मि‍लाकर रात को पीने से कुछ ही दि‍नों में पुरानी से पुरानी कब्‍ज दूर हो जाती है।
    ३) एक गिलास दूध में १-२ चाम्मच घी मिलाकर रात को सोते समय पीने से भी कब्ज रोग का समाधान होता है।
    ४) एक कप गरम जल में १ चम्म्च शहद मिलाकर पीने से कब्ज मिटती है। यह मिश्रण दिन में ३ बार पीना हितकर है।
    ५) जल्दी सुबह उठकर एक लिटर मामूली गरम पानी पीकर २-३ किलोमीटर घूमने जाएं। कब्ज का बेहतरीन उपचार है।
    ६) दो सेवफ़ल प्रतिदिन खाने से कब्ज में लाभ होता है।
    ७) अमरूद और पपीता ये दोनो फ़ल कब्ज रोगी के लिये अमॄत समान है। ये फ़ल दिन में किसी भी समय खाये जा सकते हैं। इन फ़लों में पर्याप्त रेशा होता है और आंतों को शक्ति देते हैं। मल आसानी से विसर्जीत होता है।
    ८) अंगूर में कब्ज निवारण के गुण हैं। सूखे अंगूर याने किश्मिश पानी में ३ घन्टे गलाकर खाने से आंतों को ताकत मिलती है और दस्त आसानी से आती है। जब तक बाजार में अंगूर मिलें नियमित रूप से उपयोग करते रहें।
    ९) अलसी के बीज का मिक्सर में पावडर बनालें। एक गिलास पानी में २० ग्राम के करीब यह पावडर डालें और ३-४ घन्टे तक गलने के बाद छानकर यह पानी पी जाएं। बेहद उपकारी ईलाज है। अलसी में प्रचुर ओमेगा फ़ेटी एसिड्स होते हैं जो कब्ज निवारण में महती भूमिका निभाते हैं।
    १०) पालक का रस या पालक कच्चा खाने से कब्ज नाश होता है। एक गिलास पालक का रस रोज पीना उत्तम है। पुरानी से पुरानी कब्ज भी इस सरल उपचार से मिट जाती है।
    ११) अंजीर कब्ज हरण फ़ल है। ३-४ अंजीर फ़ल रात भर पानी में गलावें। सुबह खाएं। आंतों को गतिमान कर कब्ज का निवारण होता है।
    १२) बड़ी मुनक्का पेट के लिए बहुत लाभप्रद होती है। मुनका में कब्ज नष्ट करने के तत्व हैं। ७ नग मुनक्का रोजाना रात को सोते वक्त लेने से कब्ज रोग का स्थाई समाधान हो जाता है। एक तरीका ये हैं कि मुनक्का को दूध में उबालें कि दूध आधा रह जाए | गुन गुना दूध सोने के आधे घंटे पाहिले सेवन करें। मुनक्का में पर्याप्त लोह तत्व होता है और दूध में आयरन नहीं होता है इसलिए दूध में मुनक्का डालकर पीया जाय तो आयरन की भी पूर्ती हो जाती है।

पीलिया = कारण,लक्षण एवं उपचार/निदान

गर्मी तथा बरसात के दिनो में जो रोग सबसे अधिक होते है, उनमे से पीलिया प्रमुख है पीलिया ऐसा रोग है जो एक विशेष प्रकार के वायरस और किसी कारणवश शरीर में पित्त की मात्रा बढ़ जाने से होता है इसमें रोगी को पीला पेशाब आता है उसके नाखून, त्वचा एवं आखों सा सफ़ेद भाग पीला पड़ जाता है बेहद कमजोरी कब्जियत, जी मिचलाना, सिरदर्द, भूख न लगना आदि परेशानिया भी रहने लगती है 
   

प्रमुख कारण :-  विषाणु जनित यकृतशोथ पीलिया या Viral Hepatitis यह एक प्रकार के वायरस से होने वाला रोग है जो इस रोग से पीडित रोगी के मल के संपर्क में आये हुए दूषित जल, कच्ची सब्जियों आदि से फैलता है कई लोग इससे ग्रस्त नहीं होते है उनके मल से इसके वायरस दूसरो तक पहुच जाते है पेट से यह लीवर में और वहां से सारे शरीर में फ़ैल जाता है रोगी को लगाईं गई सुई का अन्य स्वस्थ व्यक्ति के शरीर में बिना उबले प्रयोग करने से व रोगी का खून अन्य स्वस्थ व्यक्ति में चड़ने से भी यह रोग फैलता है । इसके अतिरिक्त शरीर में अम्लता की वृद्धि, बहुत दिनों तक मलेरिया रहना, पित्त नली में पथरी अटकना, अधिक मेंहनत, जादा शराब पीना, अधिक नमक और तीखे पदार्थो का सेवन, दिन में ज्यादा सोना, खून में रक्तकणों की कमी होना आदि कारणों से भी इस रोग की उत्पत्ति होती है !  

लक्षण :-  वायरस के शरीर में प्रवेश करने के लगभग एक मास बाद इस रोग के लक्षण नजर आने लगते है लक्षणों के प्रारम्भ होने से एक सप्ताह पहले ही रोगी के मल में वायरस निकलने लगते है आमतौर पर रोग की शुरुआत में रोगी को शक ही नहीं हो पाता है कि वह कामला का शिकार हो गया है यूं तो इसके वायरस सारे शरीर में फ़ैल जाते है पर लीवर पर इसका विशेष दुष्प्रभाव पड़ता है लिवर कोशिकाओ के रोगग्रस्त हो जाते व आमाशय में सुजन आ जाने से रोगी को भूख लगना बंद हो जाती है उसका जी मिचलाता है | और कभी कभी उसे उलटी भी हो जाती है कब्जियत रहती है भोजन की इच्छा बिलकुल न होना तथा भोजन के नाम से ही अरुचि होना इस रोग का प्रधान लक्षण है ,, लिवर में शोथ होने से आमाशय में या फिर दाहिनी पसलियों के नीचे भारीपन या हल्का सा दर्द का लक्षण भी महसूस होता है शरीर में विष संचार के कारण सिरदर्द  रहता है शरीर थका थका व असमर्थ लगने लगने लगता है ! शाम के समय तबियत गिरी गिरी रहती है शरीर में विष संचार के कारण 100 से 102 डिग्री तक बुखार भी तीन चार दिन रहता है पित्त के रक्त में जाने से मूत्र गहरे रंग, सरसों के तेल के सामान आता है तथा रोग के बढ़ने पर आंत में पित्त के कम आने से मल का रंग फीका हो जाता है मल मात्रा में अधिक व दुर्गंधित होता है | इस रोग में रक्त जमने का समय बढ़ जाता है जिससे रक्तपित्त का उपद्रव हो सकता है | त्वचा एवं आँखों का रंग पीला हो जाता है । पीलिया के रोगियों के जांच करने पर उनका लिवर कुछ कुछ बड़ा हुआ तथा पसलियों से एक तो अंगुल या अधिक नीचे स्पर्श होता है परन्तु कठोर नहीं होता , दबाने पर दर्द होता है मूत्र परिक्षण करने पर वह सरसों के तेल के समान पीला होता है क्यूंकि उसमें बिलीरूबीन होता है ,, यानि कि विस्तार से कहें तो रक्त में पित्तरंजक (Billirubin)  नामक एक रंग होता है, जिसके आधिक्य से त्वचा और श्लेष्मिक कला में पीला रंग आ जाता है।
इस दशा को ही कामला या पीलिया(Jaundice) कहते हैं- सामान्यत: रक्तरस में पित्तरंजक का स्तर 1.0 प्रतिशत या इससे कम होता है, किंतु जब इसकी मात्रा 2.5 प्रतिशत से ऊपर हो जाती है तब कामला/पीलिया के लक्षण प्रकट होते हैं। कामला/ पीलिया स्वयं कोई रोगविशेष नहीं है, बल्कि कई रोगों में पाया जानेवाला एक लक्षण है। यह लक्षण नन्हें-नन्हें बच्चों से लेकर 80 साल तक के बूढ़ों में उत्पन्न हो सकता है। यदि पित्तरंजक की विभिन्न उपापचयिक प्रक्रियाओं में से किसी में भी कोई दोष उत्पन्न हो जाता है तो पित्तरंजक की अधिकता हो जाती है, जो कामला के कारण होती है। रक्त में लाल कणों का अधिक नष्ट होना तथा उसके परिणामस्वरूप अप्रत्यक्ष पित्तरंजक का अधिक बनना बच्चों में कामला, नवजात शिशु में रक्त-कोशिका-नाश तथा अन्य जन्मजात, अथवा अर्जित, रक्त-कोशिका-नाश-जनित रक्ताल्पता इत्यादि रोगों का कारण होता है। जब यकृत की कोशिकाएँ अस्वस्थ होती हैं तब भी कामला हो सकता है, क्योंकि वे अपना पित्तरंजक मिश्रण का स्वाभाविक कार्य नहीं कर पातीं और यह विकृति संक्रामक यकृतप्रदाह, रक्तरसीय यकृतप्रदाह और यकृत का पथरा जाना (कड़ा हो जाना, Cirrhosis) इत्यादि प्रसिद्ध रोगों का कारण होती है। अंतत: यदि पित्तमार्ग में अवरोध होता है तो पित्तप्रणाली में अधिक प्रत्यक्ष पित्तरंजक का संग्रह होता है और यह प्रत्यक्ष पित्तरंजक पुन: रक्त में शोषित होकर कामला की उत्पत्ति करता है। अग्नाशय, सिर, पित्तमार्ग तथा पित्तप्रणाली के कैंसरों में, पित्ताश्मरी की उपस्थिति में, जन्मजात पैत्तिक संकोच और पित्तमार्ग के विकृत संकोच इत्यादि शल्य रोगों में मार्गाविरोध यकृत बाहर होता है। यकृत के आंतरिक रोगों में यकृत के भीतर की वाहिनियों में संकोच होता है, अत: प्रत्यक्ष पित्तरंजक के अतिरिक्त रक्त में प्रत्यक्ष पित्तरंजक का आधिक्य हो जाता है। 
वास्तविक रोग का निदान कर सकने के लिए पित्तरंजक का उपापचय (Metabolism) समझना आवश्यक है। रक्तसंचरण में रक्त के लाल कण नष्ट होते रहते हैं और इस प्रकार मुक्त हुआ हीमोग्लोबिन रेटिकुलो-एंडोथीलियल (Reticulo-endothelial) प्रणाली में विभिन्न मिश्रित प्रक्रियाओं के उपरांत पित्तरंजक के रूप में परिणत हो जाता है, जो विस्तृत रूप से शरीर में फैल जाता है, किंतु इसका अधिक परिमाण प्लीहा में इकट्ठा होता है। यह पित्तरंजक एक प्रोटीन के साथ मिश्रित होकर रक्तरस में संचरित होता रहता है। इसको अप्रत्यक्ष पित्तरंजक कहते हैं। यकृत के सामान्यत: स्वस्थ अणु इस अप्रत्यक्ष पित्तरंजक को ग्रहण कर लेते हैं और उसमें ग्लूकोरॉनिक अम्ल मिला देते हैं यकृत की कोशिकाओं में से गुजरता हुआ पित्तमार्ग द्वारा प्रत्यक्ष पित्तरंजक के रूप में छोटी आँतों की ओर जाता है। आँतों में यह पित्तरंजक यूरोबिलिनोजन में परिवर्तित होता है जिसका कुछ अंश शोषित होकर रक्तरस के साथ जाता है और कुछ भाग, जो विष्ठा को अपना भूरा रंग प्रदान करता है, विष्ठा के साथ शरीर से निकल जाता है।
प्रत्येक दशा में रोगी की आँख (सफेदवाला भाग Sclera) की त्वचा पीली हो जाती है, साथ ही साथ रोगविशेष काभी लक्षण मिलता है। वैसे सामान्यत: रोगी की तिल्ली बढ़ जाती है, पाखाना भूरा या मिट्टी के रंग का, ज्यादा तथा चिकना होता है। भूख कम लगती है। मुँह में धातु का स्वाद बना रहता है। नाड़ी के गति कम हो जाती है। विटामिन ‘के’ का शोषण ठीक से न हो पाने के कारण तथा रक्तसंचार को अवरुद्ध (haemorrhage) होने लगता है। पित्तमार्ग में काफी समय तक अवरोध रहने से यकृत की कोशिकाएँ नष्ट होने लगती हैं। उस समय रोगी शिथिल, अर्धविक्षिप्त और कभी-कभी पूर्ण विक्षिप्त हो जाता है तथा मर भी जाता है। कामला के उपचार के पूर्व रोग के कारण का पता लगाया जाता है। इसके लिए रक्त की जाँच, पाखाने की जाँच तथा यकृत-की कार्यशक्ति की जाँच करते हैं। इससे यह पता लगता है कि यह रक्त में लाल कणों के अधिक नष्ट होने से है या यकृत की कोशिकाएँ अस्वस्थ हैं अथवा पित्तमार्ग में अवरोध होने से है।
पीलिया की चिकित्सा में इसे उत्पन्न करने वाले कारणों का निर्मूलन किया जाता है जिसके लिए रोगी को अस्पताल में भर्ती कराना आवश्यक हो जाता है। कुछ मिर्च, मसाला, तेल, घी, प्रोटीन पूर्णरूपेण बंद कर देते हैं, कुछ लोगों के अनुसार किसी भी खाद्यसामग्री को पूर्णरूपेण न बंद कर, रोगी के ऊपर ही छोड़ दिया जाता है कि वह जो पसंद करे, खा सकता है। औषधि साधारणत: टेट्रासाइक्लीन तथा नियोमाइसिन दी जाती है। कभी-कभी कार्टिकोसिटरायड (Corticosteriod) का भी प्रयोग किया जाता है जो यकृत में फ़ाइब्रोसिस और अवरोध उत्पन्न नहीं होने देता। । कामला के पित्तरंजक को रक्त से निकालने के लिए काइनेटोमिन (Kinetomin) का प्रयोग किया जाता है। कामला के उपचार में लापरवाही करने से जब रोग पुराना हो जाता है तब एक से एक बढ़कर नई परेशानियाँ उत्पन्न होती जाती हैं और रोगी विभिन्न स्थितियों से गुजरता हुआ कालकवलित हो जाता है।
उपचार:- रोगी को शीघ्र ही डॉक्‍टर के पास जाकर परामर्श लेना चाहिये। बिस्‍तर पर आराम करना चाहिये घूमना, फिरना नहीं चाहिये। लगातार जांच कराते रहना चाहिए। डॉक्‍टर की सलाह से भोजन में प्रोटिन और कार्बोज वाले प्रदार्थो का सेवन करना चाहिये। नीबू, संतरे तथा अन्‍य फलों का रस भी इस रोग में गुणकारी होता है। वसा युक्‍त गरिष्‍ठ भोजन का सेवन इसमें हानिकारक है। चावल, दलिया, खिचडी, थूल्ली, उबले आलू, शकरकंदी, चीनी, ग्‍लूकोज, गुड, चीकू, पपीता, छाछ, मूली आदि कार्बोहाडेट वाले प्रदार्थ हैं 
इनका रोग की रोकथाम एवं बचाव
पीलिया रोग के प्रकोप से बचने के लिये कुछ साधारण बातों का ध्‍यान रखना जरूरी हैः- खाना बनाने, परोसने, खाने से पहले व बाद में और शौच जाने के बाद में हाथ साबुन से अच्‍छी तरह धोना चाहिए। भोजन जालीदार अलमारी या ढक्‍कन से ढक कर रखना चाहिये, ताकि मक्खियों व धूल से बचाया जा सकें। ताजा व शुद्व गर्म भोजन करें दूध व पानी उबाल कर काम में लें। पीने के लिये पानी नल, हैण्‍डपम्‍प या आदर्श कुओं को ही काम में लें तथा मल, मूत्र, कूडा करकट सही स्‍थान पर गढ्ढा खोदकर दबाना या जला देना चाहिये। गंदे, सडे, गले व कटे हुये फल नहीं खायें धूल पडी या मक्खियां बैठी मिठाईयों का सेवन नहीं करें। स्‍वच्‍छ शौचालय का प्रयोग करें यदि शौचालय में शौच नहीं जाकर बाहर ही जाना पडे तो आवासीय बस्‍ती से दूर ही जायें तथा शौच के बाद मिट्टी डाल दें। रोगी बच्‍चों को डॉक्‍टर जब तक यह न बता दें कि ये रोग मुक्‍त हो चूके है स्‍कूल या बाहरी नहीं जाने दे। इन्‍जेक्‍शन लगाते समय सिरेन्‍ज व सूई को 20 मिनट तक उबाल कर ही काम में लें अन्‍यथा ये रोग फैलाने में सहायक हो सकती है। रक्‍त देने वाले व्‍यक्तियों की पूरी तरह जांच करने से बी प्रकार के पीलिया रोग के रोगवाहक का पता लग सकता है
पीलिया के लक्षण ( Symptoms of Jaundice ) :
·         पीलापन ( Pallor ) : पीलिया का सबसे पहला और मुख्य लक्षण शरीर के अनेक हिस्सों का पीला पड़ना है. जिसमे आँखें, नाख़ून त्वचा और मूत्र भी शामिल है. इसका मुख्य कारण ये होता है कि इस रोग में लाल रक्त कोशिकायें / RBC ( Red Blood Cell ) बाईल या बिलीरुबिन पिगमेंट में बदल जाती है. जिससे मूत्र का रंग गहरा शुरू होना आरंभ हो जाता है. अगर इसपर समय पर ध्यान नही दिया जाता तो इससे मूत्र में इन्फेक्शन भी हो सकता है जिससे किडनी भी खराब हो सकती है. किडनी के साथ साथ पीलिया का रोग लीवर को भी अपना शिकार बनता है.

·         पेट दर्द ( Stomach Pain ) : क्योकि पीलिया में किडनी, लीवर और पाचन तंत्र प्रभावित होते है तो इससे पेट में दर्द और अन्य विकार उत्पन्न होने आरंभ हो जाते है. इस स्थिति में लोगो को ज्यादातर पेट के दाहिने हिस्से में दर्द होना आरंभ होता है और ये धीरे धीरे बढ़ने लगता है.

·         तेज बुखार ( High Fever ) : पीलिया एक वायरस का रोग है जिससे शरीर में विष का संचार होता है. ये विष शरीर का तापमान 100 से 103 डिग्री तक पहुंचा देता है. जिससे रोगी को लगातार बुखार रहता है. इससे उनकी आँखों पर गहरा प्रभाव पड़ता है क्योकि उनकी आँखे बुरी तरह से जलने लगती है.

·         उल्टियाँ ( Vomiting ) : पीलिया के रोगी का खाने से मन उठ जाता है किन्तु फिर भी उसको उल्टी और मतली आती रहती है. जिससे उसके शरीर में कमजोरी आ जाती है और उसे चक्कर आने लगते है. अगर इन लक्षणों पर शीघ्र ही ध्यान नही दिया जाता तो ये बड़े रोग को बुलावा दे देती है.। अनजान व्‍यक्ति से यौन सम्‍पर्क से भी बी प्रकार का पीलिया हो सकता है।सेवन करना चाहिये


Friday 1 September 2017

आधासीसी (माइग्रेन)

आधासीसी (माइग्रेन) -

सिर में दर्द कई कारणों से होता है पर एक मुख्य कारण होता है गैस ट्रबल। गैस बढ़कर जब ऊपर चढ़ती है, पास नहीं हो पाती तो यह दिल व दिमाग पर असर करती है, इसी के परिणामस्वरूप सिर दर्द होता है। आधा सीसी का दर्द.का दर्द इसी प्रकार का है, जिसमें आधा सिर दुखता है और बहुत पीड़ा होती है।   आधासीसी या माइग्रेन दर्द अति कष्टकारी होता है | इसमें सिर के आधे भाग में दर्द होता है | माइग्रेन में रोगी की आँखों के सामने अँधेरा सा छा जाता है सुबह उठते ही चक्कर आने लगते हैं | जी मिचलाना,उल्टी होना,अरुचि पैदा होना आदि आधासीसी रोग के लक्षण हैं | मानसिक व शारीरिक थकावट,चिंता करना,अधिक गुस्सा करना,आँखों का अधिक थक जाना,अत्यधिक भावुक होना तथा भोजन का ठीक तरह से न पचना आदि माइग्रेन रोग के कुछ कारण हैं !

आधासीसी के दर्द (Migraine)  पारंपरिक रूप से सिरदर्द एकतरफा, चुभने वाला और मध्यम से गंभीर तीव्रता वाला होता है । आमतौर पर यह धीरे-धीरे आता है और शारीरिक गतिविधि के साथ बढ़ता है । यह दर्द पुरुषों की अपेक्षा स्त्रियों को अधिक होता है | कई बार आधासीसी या अधार्वभेदक (Migraine) का दर्द एक विशेष समय पर प्रारंभ होकर, कम-से-कम दो घंटे अथवा दो दिन के बाद स्वयं समाप्त हो जाता है |

माइग्रेन होने का कारण Migraine Headache 

रोग के कारणों के संबंध में विशेष कुछ नहीं कहा जा सकता | परंतु कुछ विशेषज्ञों का विचार है कि सिर की रक्तवाहिनी नाड़ियों में विशेष प्रकार की संवेदना से यह दर्द प्रारंभ हो जाता है | यह रोग आनुवांशिक भी हो सकता है | कई व्यक्तियों को खट्टे फल, चॉकलेट, पनीर तथा शराब आदि पीने से भी यह दर्द आरम्भ हो जाता है | स्त्रियों को मासिक धर्म आरंभ होने के समय भी कई बार यह दर्द उत्पन्न हो जाता है |

माइग्रेन के लक्षण Migraine Symptoms 


यह दर्द सिर के एक भाग में होता है | इस दर्द का संबंध आखों की कमजोरी, मितली तथा उल्टियां आदि आने से भी है | कई बार इसके रोगी को चक्कर आने लगते हैं | मूर्छा सी छाने लगती है और आंखों, कान और गालों के आस-पास तेज दर्द होने लगता है | आंखों से पानी निकलता है | नाक बन्द हो जाती है | कुछ व्यक्ति आधे सिर के दर्द से अंधे भी हो सकते हैं | परंतु ऐसी संभावना बहुत कम लोगों में ही रहती है !
आज हम आपको माइग्रेन के लिए कुछ आयुर्वेदिक औषधियों के विषय में बताएंगे ------ 
१- एक चौथाई चम्मच तुलसी के पत्तों के चूर्ण को सुबह - शाम शहद के साथ चाटने से आधासीसी के दर्द में आराम मिलता है |
२- दस ग्राम सौंठ के चूर्ण को लगभग ६० ग्राम गुड़ में मिलाकर छोटी-छोटी गोलियां बना लें | इन्हे सुबह शाम खाने से आधासीसी का दर्द दूर हो जाता है |

३- सिर के जिस हिस्से में दर्द हो उस नथुने में ४-५ बूँद सरसों का तेल डालने से आधे सिर का दर्द ठीक हो जाता है |

४- सुबह खाली पेट आधा सेब प्रतिदिन सेवन करने से माइग्रेन में बहुत लाभ होता है |

५- सौंफ,धनिया और मिश्री सबको ५-५ ग्राम की मात्रा में लेकर पीस लें | इसे दिन में तीन बार लगभग ३-३ ग्राम की मात्रा में पानी के साथ लेने से आधासीसी का दर्द दूर हो जाता है |
६- नियमित रूप से सातों प्राणायाम का अभ्यास करें , लाभ होगा | माइग्रेन से पीड़ित रोगी को स्टार्च,प्रोटीन और अधिक चिकनाई युक्त भोजन नहीं करना चाहिए | फल,सब्जियां और अंकुरित दालों का सेवन लाभकारी होता है |

 ७-आधासीसी के रोगी को कमरे में अंधेरा करके आराम से लेट जाना चाहिए | अधिक कष्ट होने पर ऐस्पीरीन आदि लेने से दर्द में आराम होता है |
८ . प्रात:काल देशी घी हल्का गरम करें | जब सहन करने योग्य स्थिति में आ जाए तो रोगी को लिटाकर मुंह थोड़ा ऊंचा करें और साफ मेडिकेटिड रूई से दो-दो, चार-चार बूंदें उसकी नाक में टपकाएं | रोगी को आराम मिलेगा | कुछ दिन ऐसा करने से यह रोग सदा के लिए समाप्त हो जाता है |
९ . सिर के जिस भाग में दर्द हो, पहले उस ओर के नथुने में घी की बूंदें टपकानी चाहिए | गरम करके ठण्डा किया हुआ सरसों का तेल भी उस ओर के नथुने में डालने अथवा सूघने से दर्द दूर होता है | पांच-सात दिन ऐसा करने से व्यक्ति रोगमुक्त हो जाता है |
१० . लहसुन बारीक पीसकर जिस ओर सिर में दर्द हो उस ओर लगाने से दर्द समाप्त हो जाता है | अधिक देर तक लहसुन का लेप लगे रहने से त्वचा पर फफोले हो सकते हैं | इसलिए लेप करते समय सावधान रहना चाहिए | साफ करने के बाद बोरोलीन या मक्खन आदि लगाना चाहिए |
११. रात को सोते समय पैरों के तलवों में, विशेषकर बीच के भाग में मालिश करने से अचानक होने वाला सिरदर्द ठीक हो जाता है |
१२. लौंग अथवा पुदीने को पीसकर दर्द वाली कनपटी पर लगाने से सिरदर्द में लाभ होता है |
१३. सिर, माथे अथवा कनपटी में सर्दी लगने से दर्द हो तो जायफल पीसकर लेप करने से लाभ होता है |
१४. छाया में सुखाए हुए तुलसी के पत्तों को मसलकर रोगी को सुंघाने से भी सिरदर्द में आराम मिलता है |
१५. सिरदर्द अथवा आधासीसी के दर्द में प्रायः लोग सिर पर पट्टी बांध लेते हैं | यदि पट्टी बांधने से पहले सिर की हल्की मालिश कर ली जाए तो काफी शांति मिलती है |
१६ . अनेक रोगियों का सिरदर्द सूर्य के साथ घटता-बढ़ता रहता है | ऐसे रोगियों को यदि सूर्योदय से पूर्व गरम दूध में जलेबी मिलाकर खिलाई जाए तो लाभ होता है | अनेक रोगियों को सूर्योदय से पूर्व दही, चावल और मिश्री मिलाकर खिलाने से भी सिरदर्द ठीक होता है |
१७. सिरदर्द के रोगी नियमित रूप से प्रात:काल देसी घी में काली मिर्च व मिश्री मिलाकर खाएं तो उन्हें लाभ होता है |
१८. आधे सिर के दर्द में शहद भी लाभदायक है | अचानक सिरदर्द के समय उल्टी होने की स्थिति में मुंह साफ करके, दो चम्मच शहद चाटने से लाभ होता है |
१९. तुलसी के पत्तों के चूर्ण मिली चाय सुबह  सेवन करें |
२०. पान के पत्ते को हल्का-सा गरम करके सिर के जिस भाग में दर्द हो, वहां लगाने से लाभ होता है |
२१. अजवाइन को कोयले अथवा तवे पर भूनकर सूघने अथवा उसका चूर्ण नसवार की तरह लेना भी प्रभावकारी कहा गया है |
२२. पिसी हुई लौंग में थोड़ा नमक मिलाकर दूध में पेस्ट-सा बनाकर लेप करने से सिरदर्द में आराम होता है |

२३. अदरक का रस भी अनेक प्रकार के दर्दो को शान्त करने में बहुत ही उपयोगी है | अदरक के रस की मलहम की तरह लगाने अथवा सौंठ के चूर्ण को पानी में लुगदी बनाकर लगाने से सिरदर्द में लाभ होता है |

यूरिन इन्फेक्शन – Urinary Tract Infection

यूरिन इन्फेक्शन होने की संभावना लगभग 50 % महिलाओं को होती है। यह क्यों होता है। इससे क्या नुकसान होता है तथा इससे कैसे बचा जा सकता है , इसकी जानकारी सभी महिलाओं को होनी चाहिए ताकि थोड़ी सावधानी रखकर इस परेशानी से बचा जा सके। यूरिन इन्फेक्शन जिसे युटीआई कहते है पेशाब से सम्बंधित अंगों में होने वाला इन्फेक्शन है। जब कुछ कीटाणु पेशाब से सम्बंधित अंगों में चले जाते है तो वहाँ संक्रमण हो जाता है और इस वजह से पेशाब में दर्द , जलन , कमर दर्द , बुखार आदि समस्याएं पैदा होने लगती है। इसे यूरिन  इन्फेक्शन या युटीआई कहते है।  यूरिन इन्फेक्शन के कारण मूत्र से सम्बंधित कोई भी अंग प्रभावित हो सकता है जैसे गुर्दे ( किडनी ) , मूत्राशय , मूत्र नली आदि। यह इन्फेक्शन जब मूत्राशय में होता है तो पेशाब में परेशानी होने लगती है जैसे पेशाब करते समय दर्द , बार बार पेशाब आना , पेशाब करते समय जलन आदि होने लगते है। मूत्राशय खाली होने पर भी ऐसा लगता है की पेशाब आएगी। इस प्रकार के लक्षण महसूस होने के अलावा बुखार भी आता हो और पीठ के निचले हिस्से में दर्द भी होता हो तो यह किडनी में इंफेक्शन के कारण हो सकता है। ज्यादातर मूत्राशय ( Bladder ) इससे प्रभावित होता है। इसका तुरंत उपचार ले लेना चाहिए अन्यथा इन्फेक्शन किडनी तक फैल जाने से समस्या गंभीर हो सकती है। एक बार ठीक होने के बाद भी इसके वापस दुबारा होने की संभावना होती है अतः बीच में दवा छोड़नी नहीं चाहिए।

यूरिन इन्फेक्शन के लक्षण – UTI Symptoms


 पेशाब करते समय जलन या दर्द होना।
—  बार बार तेज पेशाब आने जैसा महसूस होता है  , लेकिन मुश्किल से थोड़ी सी पेशाब आती है ।
—  नाभि से नीचे पेट में , पीछे पीठ में या पेट के साइड में दर्द होना।
—  गंदला सा , गहरे रंग का , गुलाबी से रंग का , या अजीब से गंध वाला पेशाब होना।
—  थकान और कमजोरी महसूस होना।
—  उलटी होना , जी घबराना  ।
—  बुखार या कंपकंपी ( जब इन्फेक्शन किडनी तक पहुँच जाता है ) होना।
अगर यूरिन इन्फेक्शन की संभावना लगे तो डॉक्टर से संपर्क जरूर करना चाहिए। पेशाब की जाँच करने पर यूरिन इन्फेक्शन है या नहीं यह
निश्चित हो जाता है और उसी के अनुसार दवा ली जा सकती है।

यूरिन इन्फेक्शन होने के कारण – Reasons Of Urinary Tract Infection

  यूरिन इन्फेक्शन होने का मुख्य कारण E. Coli बेक्टिरिया होते है जो आँतों में पाए जाते है। ये बेक्टिरिया गुदा द्वार ( Anus ) से निकल कर मूत्र मार्ग  ( urethra ) ,  मूत्राशय ( Bladder ) , मूत्र वाहिनी ( Ureter )  या किडनी में इन्फेक्शन फैला सकते है।
महिलाओं में यूरिन इन्फेक्शन अधिक होने का मुख्य कारण मूत्र मार्ग तथा गुदा का पास में होना होता है। महिलाओं में मूत्र की नली छोटी होने’ के कारण मूत्राशय तक जल्दी संक्रमण हो जाता है। गुदा में मौजूद बेक्टिरिया पास के मूत्र मार्ग को संक्रमित कर देते है। वहाँ से संक्रमण मूत्राशय तक पहुँच जाता है। यदि इस स्थिति में उपचार नहीं होता है तो किडनी भी प्रभावित हो सकती है। यौन सम्बन्ध के माध्यम से भी बेक्टिरिया मूत्र नली में संक्रमण पैदा कर सकते है। यौन सम्बन्ध के समय साफ सफाई का ध्यान नहीं रखना यूरिन इन्फेक्शन होने का एक बड़ा कारण है। यूरिन में इन्फेक्शन  16 से 35 वर्ष की महिलाओं को अधिक होता है। इस उम्र में यौन संबंधों में सक्रियता इसका कारण होता है। शादी के बाद यह इन्फेक्शन हो जाना आम बात होती है। इसी  वजह से इसे  ” हनीमून सिस्टाइटिस ” के नाम से भी जाना जाता है।
महिलाओं द्वारा  फेमिली प्लानिंग के उद्देश्य से योनि में लगाए जाने वाले डायाफ्राम के कारण यूरिन इन्फेक्शन हो सकता है।


—  डायबिटीज , मोटापा या अनुवांशिकता भी यूरिन में इन्फेक्शन होने का कारण हो सकते है।

—  गर्भावस्था में प्रोजेस्ट्रोन हार्मोन के बढ़ने के कारण मूत्राशय और मूत्र नली की संकुचन की क्षमता कम हो जाती है। इस वजह से मूत्राशय के सही प्रकार से काम न कर पाने के कारण यूरिन इन्फेक्शन हो जाता है।

—  मेनोपॉज  के समय एस्ट्रोजन हार्मोन कम होने के कारण योनि में इन्फेक्शन  बचाने वाले लाभदायक बेक्टिरिया की कमी हो जाती है। इस
वजह से यूरिन इन्फेक्शन होने की संभावना बढ़ जाती है।
—  पुरुषों में डायबिटीज या प्रोस्टेट के बढ़ने के कारण यूरिन में इन्फेक्शन हो सकता है।

—  बच्चों में कब्ज का बना रहना तथा मूत्राशय व मूत्रनली का सही प्रकार से काम नहीं कर पाना यूरिन इन्फेक्शन का कारण हो सकता है।

—  पेशाब निकलने के लिए लंबे समय तक कैथिटर लगाए जाने से भी यूरिन इन्फेक्शन हो सकता है।

यूरिन इन्फेक्शन से बचने के उपाय – UTI Preventions


इन बातों का ध्यान रखना चाहिए :
—  पानी पर्याप्त मात्रा में पीना चाहिए। पानी कितना पीना चाहिए यह जानने के लिए 
----  जब भी पेशाब आने जैसा लगे तुरंत जाएँ चाहे किसी भी काम में व्यस्त हों। तसल्ली से पूरा मूत्राशय खाली करें। पेशाब को देर तक रोके रखने से यूरिन इन्फेक्शन हो सकता है।
—  मलत्याग के बाद या मूत्र त्याग के बाद आगे से पीछे की तरफ पोंछें या धोएं। न की पीछे से आगे की तरफ। ताकि इस प्रक्रिया में गुदा के
बेक्टिरिया योनि या मूत्र द्वार तक न पहुंचें।
—  बाथ टब  के बजाय शॉवर या मग्गे बाल्टी से नहाएं।
—  यौन सम्बन्ध से पहले तथा बाद में साफ सफाई का ध्यान रखें।
—  यौन सम्बन्ध के बाद यूरिनल का उपयोग जरूर करें ताकि यदि मूत्र नली बेक्टिरिया आदि से मुक्त होकर साफ हो जाये।
—  कॉटन अंडरवियर काम में लें। नायलोन अंडरवियर या टाइट जीन्स का उपयोग करने से नमी बनी रहती है जिसके कारण बेक्टिरिया
पनप सकते है।
—  कुछ समय के लिए तेज खुशबुदार स्प्रे या डूश आदि का उपयोग न करें। इनसे स्थिति बिगड़ती ही है।
—  डॉक्टर के बताये अनुसार पूरी दवा लेनी चाहिए। ठीक हो गए ऐसा समझ कर दवा बीच में छोड़नी नहीं चाहिए।

पित्ताशय पथरी के कारण ओर दुष्परिणाम

पित्त पथरी, पित्ताशय के अन्दर पित्त अवयवों के संघनन से बना हुआ रवाकृत जमाव होता है। इन पथरियों का निर्माण पित्ताशय के अन्दर होता है लेकिन ये केंद्र से दूर रहते हुए पित्त मार्ग के अन्य भागों में भी पहुंच सकती है जैसे पुटीय नलिका, सामान्य पित्त नलिका, अग्न्याशयीय नलिका या एम्प्युला ऑफ वेटर.
पित्ताशय में पथरी की उपस्थिति तीव्र कोलेसिसटाइटिस का कारण बन सकती है जो कि पित्ताशय में पित्त के अवरोधन के कारण होने वाली सूजन की अवस्था है और यह प्रायः आंत संबंधी सूक्ष्मजीवों द्वारा होने वाले द्वीतियक संक्रमण का कारण भी बनता है, मुख्यतः एस्चीरिचिया कोली और बैक्टिरॉयड्स वर्गों में. पित्त मार्ग के अन्य हिस्सों में पथरी की उपस्थिति के कारण पित्त नलिकाओं में अवरोध पैदा हो सकता है जोकि एसेन्डिंग कोलैनजाइटिस या पैन्क्रियेटाइटिस जैसी गंभीर अवस्थाओं तक पहुंच सकता है। इन दोनों में से कोई भी अवस्था प्राणों के लिए घातक हो सकती है और इसलिए इन्हें चिकित्सीय आपातस्थिति के रूप में देखा जाता है।
पित्त की पथरियां विभिन्न आकार को होती हैं, ये रेत के एक कण से लेकर गोल्फ की गेंद जितनी बड़ी हो सकती है। पित्ताशय में एक बड़ी पथरी या कई छोटी पथरियां मौजूद हो सकती हैं। स्युडोलिथ्स, जिन्हें कभी-कभी स्लज भी कहा जाता है, यह गाढ़ा स्राव होता है, जो पित्ताशय के अन्दर अकेले या पूर्ण रूप से विकसित पथरी के साथ जुड़ा हुआ पाया जा सकता है। इसकी नैदानिक प्रस्तुती कोलेलिथियेसिस के सामान ही होती है। पिताशय की पथरी का संघटन आयु, भोजन और नस्ल द्वारा प्रभावित होता है। इनके संघटन के आधार पर, पित्ताशय की पथरियों को निम्न प्रकारों में विभक्त किया जा सकता है:
कोलेस्ट्रॉल पथरियां----
कोलेस्ट्रॉल पथरियां विभिन्न रंगों की हो सकती है, यह हलके पीले रंग से लेकर गहरे हरे या भूरे रंग की होती है और इसका आकार अंडे के समान होता है तथा यह 2 से 3 सेमी लम्बी हो सकती है, जिसमे प्रायः मध्य में एक छोटा सा गहरे रंग का धब्बा होता है। इस प्रकार से वर्गीकृत किये जाने हेतु इनके संघटन में अवश्य ही भार के अनुसार कम से कम 80% कोलेस्ट्रौल (या जापानी वर्गीकरण प्रणाली के अनुसार 70%) होना चाहिए
वर्णक पथरियां-----
वर्णक पथरियां छोटी, गहरे रंग की पथरी होती है जो पित्ताशय में पाए जाने वाले बिलिरूबिन और कैल्सियम के लवणों से बनी होती है। इनमे कोलेस्ट्रौल की मात्रा 20 प्रतिशत से भी कम होती है
मिश्रित पथरियां----
मिश्रित पथरियों में आदर्श रूप से 20 से 80 प्रतिशत कोलेस्ट्रौल होता है। अन्य सामान्य संघटकों में कैल्सियम कार्बोनेट, पॉमिटेट फॉस्फेट, बिलिरुबिन और अन्य पित्त वर्णक हैं। इनके कैल्सियम घटक के कारण ये प्रायः रेडियोग्राफी द्वारा दृश्य होती हैं।
पित्ताशय की पथरी कई वर्षों तक लक्षणरहित भी रह सकती है। पित्ताशय की ऐसी पथरी को "साइलेंट स्टोन" कहते हैं और इनके लिए उपचार की आवश्यकता नही होती. आमतौर पर लक्षण तब दिखने शुरू होते हैं, जब पथरी एक निश्चित आकार प्राप्त कर लेती है (>8 मिमि) पित्ताशय की पथरी का एक प्रमुख लक्षण "पथरी का दौरा" होता है जिसमे व्यक्ति को पेट के ऊपरी दाहिने हिस्से में अत्यधिक दर्द होता है, जिसके बाद प्रायः मिचली और उल्टी आती है, जो 30 मिनट से लेकर कई घंटों तक निरंतर बढ़ती ही जाती है। किसी मरीज़ को ऐसा ही दर्द कंधे की हड्डियों के बीच या दाहिने कंधे के नीचे भी हो सकता है। यह लक्षण "गुर्दे की पथरी के दौरे" से मिलते-जुलते हो सकते हैं। अक्सर ये दौरे विशेषतः वसायुक्त भोजन करने के बाद आते हैं और लगभग हमेशा ही यह दौरे रात के समय आते हैं। अन्य लक्षणों में, पेट का फूलना, वसायुक्त भोजन के पाचन में समस्या, डकार आना, गैस बनना और अपच इत्यादि होते हैं।
ऐसे मामलों में शारीरिक परीक्षण किये जाने की स्थिति में सभी मर्फी लक्षण (रोग निदान की एक प्रणाली) सकारात्मक पाए जाते हैं।

कारण----

पित्ताशय की पथरी का खतरा पैदा करने वाले लक्षणों में अधिक वज़न होना, 40 के आसपास या उससे अधिक उम्र का होना और समय से पूर्व रजोनिवृत्ति का होना आदि हैं! यह अवस्था अन्य नस्लों की अपेक्षा सफ़ेद नस्ल के लोगों में अधिक प्रबल होती है। मेलाटोनिन की कमी भी पित्ताशय की पथरी का एक प्रमुख कारण होती है, क्योंकि मेलाटोनिन कोलेस्ट्रौल के स्राव को रोकता है और साथ ही कोलेस्ट्रौल के पित्त में परिवर्तित होने की क्रिया को बढ़ाता भी है और यह एक एंटीऑक्सीडेंट भी है जो पित्ताशय के जारणकारी दबाव को कम करने में समर्थ होता है। शोधकर्ताओं का यह मानना है कि पित्ताशय की पथरी कई कारणों के संयोजन से होती है, जिसमे वंशानुगत शारीरिक गुणधर्म, शरीर का वज़न, पित्ताशय की गतिशीलता और संभवतः भोजन भी शामिल है। हालांकि इन जोखिम संबंधी कारणों की अनुपस्थिति भी पित्ताशय की पथरी की सम्भावना को समाप्त नहीं कर सकती.
पित्ताशय की पथरी और भोजन के मध्य हालांकि कोई सीधा सम्बन्ध साबित नहीं किया जा सका है; हालांकि कम रेशेयुक्त, उच्च कोलेस्ट्रौल युक्त भोजन तथा उच्च स्टार्च युक्त भोजन खाने से भी पित्ताशय में पथरी के बनने की सम्भावना बढ़ जाती है। पोषण संबंधी अन्य कारण जिनसे पित्ताशय की पथरी होने की सम्भावना बढ़ सकती है उनमे तीव्रता के साथ वज़न घटना, कब्ज़, पर्याप्त से कम भोजन करना, अधिक मछली नहीं खाना तथा निम्नांकित पोषक तत्वों, फोलेट, मैगनीसियम, कैल्सियम और विटामिन सी की कम मात्र ग्रहण करना शामिल है। दूसरी ओर शराब (वाइन) और समूचे अन्न से बनी ब्रेड आदि के सेवन से पित्ताशय की पथरी होने की सम्भावना कम हो जाती है। विकासशील विश्व में सामान्यतया वर्णक प्रकार की पित्ताशयीय पथरी ही अधिक देखने को मिलती है। वर्णक प्रकार की पथरी होने का जोखिम बढ़ाने वाले कारणों में हेमोलिटिक एनेमियास (जैसे सिकल सेल विकार और आनुवंशिक स्फेरोकाइटोसिस), सिरोसिस और पित्तीय मार्ग संक्रमण आदि आते हैं। एरिथ्रोपोएटिक प्रोटोपौर्फिरिया (ईपीपी (EPP)) से ग्रसित व्यक्तियों में पित्ताशय की पथरी होने का खतरा अधिक होता है।

रोग-निदान --- 

कभी-कभी कोलेस्ट्रौल पित्त पथरी मौखिक रूप से अर्सोडिऑक्सीकोलिक एसिड के द्वारा भी गलायी जा सकती है लेकिन इसके लिए यह आवश्यक होता है कि मरीज़ कम से कम 2 वर्ष तक इसकी दवा लेता रहे.! हालांकि, एक बार दवा बंद करने पर फिर से पथरी हो सकती है। पथरी के कारण सामान्य पित्त नलिका में होने वाले अवरोध को एंडोस्कोपी रेट्रोग्रेड स्फिन्क्ट्रोटॉमी (ईआरएस (ERS)) के द्वारा हटाया भी जा सकता है जिसके उपरांत एंडोस्कोपिक रेट्रोग्रेड कोलएंजियोपैन्क्रियेटोग्राफी (ईआरसीपी (ERCP)) की जाती है। लिथोट्रिप्सी (एक्स्ट्राकॉर्पोरियल शॉक वेव थेरेपी) नामक प्रक्रिया द्वारा पित्त पथरी को तोड़ा जा सकता है। जिसमे, अल्ट्रासोनिक शॉक तरंगों को पथरी के एक बिंदु पर एकत्रित करके उसे छोटे टुकड़ों में तोड़ दिया जाता है। इससे ये सरलता से मल के द्वारा निकल जाती हैं। हालांकि, उपचार की यह पद्धति तभी उपयुक्त समझी जाती है जब पथरियों की संख्या बहुत कम हो.
शल्य चिकित्सा ---
कोलेसिस्टेकटॉमी (पित्ताशय को निकालना) के द्वारा कोलेलिथियेसिस के पुनः होने की सम्भावना 99 प्रतिशत तक कम हो जाती है। केवल लक्षणात्मक मरीजों में ही शल्य चिकित्सा की जानी चाहिए. अधिकांश लोगों में पित्ताशय की अनुपस्थिति से कोई नकारात्मक परिणाम नहीं होता. हालांकि, अधिकांश लोगों में - 5 से 40 प्रतिशत लोगों में - पोस्टकोलेसिस्टेकटॉमी सिंड्रोम नामक अवस्था विकसित हो जाती है जोकि गैस्ट्रोइंटेसटाइनल समस्या और पेट के ऊपरी दाहिने हिस्से में निरंतर दर्द पैदा कर सकती है। इसके अतिरिक्त, अधिकांश मरीजों, लगभग 20 प्रतिशत में दीर्घकालिक डायरिया हो जाता है।
कोलेसिस्टेकटॉमी के लिए दो विकल्प होते हैं:-----
  • ओपन कोलेसिस्टेकटॉमी: यह प्रक्रिया पेट (लापरोटॉमी) में निचली दाहिनी पसली के नीचे एक चीरे द्वारा की जाती है। आदर्श रूप से स्वास्थलाभ के लिए 3-5 दिन तक अस्पताल में रहना पड़ता है, अस्पताल से छूटने के एक सप्ताह बाद साधारण भोजन लिया जा सकता है और इसके कई सप्ताह बाद सामान्य दिनचर्या शुरू की जा सकती है।
  • लैप्रोस्कोपिक कोलेसिस्टेकटॉमी: इस प्रक्रिया का प्रयोग 1980 के दशक में शुरू हुआ था! इसमें कैमरे और उपकरण के लिए तीन या चार छोटे छेद किये जाते हैं। ऑपरेशन के बाद की जाने वाली देखभाल में आदर्श रूप से उसी दिन छुट्टी दे दी जाती है या एक रात अस्पताल में रहना पड़ता है, इसके बाद कुछ दिनों तक घर पर आराम करने की और दर्द होने पर दवा लेने की सलाह दी जाती है। जो मरीज़ लैप्रोस्कोपिक कोलेसिस्टेकटॉमी करवाते हैं, वे अस्पताल से छुट्टी मिलने के एक सप्ताह बाद साधारण भोजन और मामूली गतिविधियां शुरू कर सकते हैं, इस दौरान उनका ऊर्जा स्तर कुछ कम रहेगा और उन्हें एक या दो महीने तक हल्का दर्द हो सकता है। अध्ययनों से यह प्रदर्शित हुआ है कि यह प्रक्रिया भी ओपन कोलेसिस्टेकटॉमी, जोकि अधिक कठिन है, के समान ही प्रभावी है किन्तु इसके लिए एक आवश्यक परिस्थिति यह है कि प्रक्रिया शुरू करने के पूर्व पथरियों को कोलैंजियोग्राम द्वारा सटीक ढंग से ढूंढ लिया जाये जिससे कि उन सभी को हटाया जा सके !